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भगवानका धर्मोपदेश !
[ २७९. है, आत्मध्यानकी एकाग्रता होनाती है, जिससे स्वस्वरूपकी प्राप्ति: होती है । इसीलिये कहा गया है कि :
'खाना चलना सोवना, मिलना वचन विलास । ज्यौं ज्यौं पंच घटाइये, त्यौं त्यौं ध्यान प्रकास ।। ६२ ।। आगमग्यान सदा व्रतवान, तपै तप जान तिहूं गुन पूरा । ध्यान महारथ धारन कारन, होय धुरंधर सो नर सूरा ॥ ध्यान अभ्यास लहै सिववास, विना भवपास परै दुख भूरा। कर्म महादि सैल बडे बहु, ध्यान सु वज्र करै चकचूरा ।। ६३ ।। भाषा द्रव्यसंग्रह द्यानतरायकृत || इस गुणस्थान से ध्यानकी उत्तरोत्तर वृद्धि होना प्रारम्भ हो जाता है ।
८. अपूर्वकरण - गुणस्थान में उस विचार - क्रिया (Thoughtactivity) को मुनि प्राप्त होता है जिसको अभीतक उनकी आत्मा ने प्राप्त नहीं किया है। आर्त, रौद्र धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानों में सर्व अंतिम सर्वोच्च शुक्लध्यानका प्रथम अनुभव इसी गुणस्थान में होता है । आत्मा शुद्ध रूपका ध्यान शुद्ध रीति से यहीं होता है। आर्त और रौद्र ध्यान बुरे ध्यान हैं, यह कषायों को लिये हुये हैं । धर्मध्यान इनसे अच्छा शुभरूप है और शुक्लध्यान तो सर्वोच्च आत्मध्यान ही हैं ।
९. अनिवृत्तिकरण - गुणस्थान में उपरोक्त विचार - क्रिया (करण) और अधिक बढ़ जाती है जिसमें और भी अधिक शुद्धध्यान होता है, जो प्रथम शुक्लध्यानका ही एक दर्जा है ।
१०. सूक्ष्मसाम्पराय - गुणस्थान में बहुत ही मामूली तरी -