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२५०] भगवान पार्श्वनाथ । अहिंसा, अचौर्य, सत्य और अपरिग्रह व्रतरूप करते हैं । इप्स २०६का भाव मूलमें इसी रूप था, इस बातको प्रकट करनेके लिये कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । हां, यह अवश्य है कि बौद्धशास्त्रोंमें भी इसी चतुर प्रकारके धर्म का निरुपण जैन साधुओं के संबंध किया हुआ मिलता है परन्तु वहां उसके भाव अहिंसादि चार व्रतोंके रूप में नहीं बताये गये हैं; बलिक दिगम्बर संप्रदाय के प्रख्यात आचार्य श्रीसमन्तभद्रस्वामीके निम्न श्लोकसे उसका सामञ्जस्य ठीक बैठ जाता हुआ वहां मिलता है:‘विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तप वी स प्रशस्यते ॥ १०॥"
इस इलोकमें तपस्वी अथवा मुनि वह बतलाया गया है जो विषयोंकी आशा और आकांक्षासे रहित हो, निराम्भ हो, अपरिग्रही
और ज्ञ न ध्यानमय तपको धारण किये हुये तपोरत्न ही हो । यहां निग्रंथ मुनिके चार ही विशेषण गिनाये गये हैं और यह ठीक वैसे ही हैं जैसे कि बौद्धशास्त्र में बताये गये हैं। बौद्धशास्त्र में यह उल्लेख साधु अवस्था ( सामन्न फल ) को विविध मतोंके अनुसार प्रगट करते हुये आया है। इसलिये यहां र ऋषियों की दशाको स्पष्ट करनेका भाव है और इसी भाव में ऋषियों के चार विशेषण दिगंबर जैनाचार्यने उक्त प्रकार गिनाये हैं। अतएव निग्नथ धर्ममें चातुर्याम धर्म का भाव उक्त प्रकार था, यह बौ दशास्त्रके उल्लेखसे स्पष्ट है । इसका विषद विवेचन हमने अन्यत्र प्रगट किया है । अतएव
१-दीघनिकाय ( P. T. S.) भाग १ पृ. ५७-५८ । २-देखो * भगवान महावीर और म० बुद्ध' का परिशिष्ट ।