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भगवानका धर्मोपदेश ।
[ २६७ बड़े प्रयत्न से करता है उसी तरह मोक्षसुखको चाहनेवाले व्यक्तिको अपने आत्मारूपी राजाकी पहिचान करके उसमें श्रद्धा करनी चाहिये और फिर उसकी आराधना करनेमें लीन होजाना चाहिये । उसको जान लेना चाहिये कि आत्माका स्वभाव रागादिक भावों से भिन्न ज्ञान, दर्शन और सुखरूप है । आत्मा अनादि, अनन्त और एक अखण्ड पदार्थ है, वह संकल्प - विकल्पसे रहित शुद्ध बुद्ध है, वह स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण से भी रहित है, साक्षात् सच्चिदानंदरूप है । सच पूछो जो आत्मा है वही परमात्मा है जो मैं हूं सो वह है । इसलिये अन्यकी शरण में जाना वृथा है । इसप्रकार आत्मा के शुद्धस्वरूपमें श्रद्धान करके, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानको पाकर के आत्माके गुणोंमें विचरण करना श्रेष्ठ है । यही सम्यक्चारित्र है । मुक्तिका मार्ग इसी सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप है; परन्तु साधारण जीवात्माओंके लिये सहसा यह संभव नहीं है कि वह एकदम इस उच्च दशाको प्राप्त कर लें । वह संमारके मोह में फंसे हुये हैं । इस कारण उनके लिये व्यवहार मोक्षमार्गका निरूपण किया गया है, जिसपर चलकर वह निश्चय रत्नत्रय धर्मको पा लेते हैं । व्यवहार से जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित सात तत्त्वों और नव पदार्थरूप धर्म में श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन है । उनका ज्ञान प्राप्त करना सम्यग्ज्ञान है और श्रीजिनेन्द्रदेवकी उपासना करना, सामायिक जाप जपना; हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह रूप पांच पापोंसे दूर रहना आदि नियम सम्यक् चारित्र में गर्भित हैं । सामान्य जैनीको मधु - मद्य-मांसका त्याग करके उपरोक्त प्रकार अपना जीवन बनाना आवश्यक होता है । इसप्रकारका आचरण बना
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