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भगवान पार्श्वनाथ । लिये पीतलेश्यामें आना भी कठिन है। फिर भला नील और कृष्णलेश्यावालोंकी तो बात पूंछना ही क्या है ? ऊपरकी तीन शुभ लेश्यायोंरूप निप्तका जीवनव्यवहार होगा, वही अपने निजस्वरूप अर्थात् सच्चे सुखको जल्दी पा सकेगा! इसतरह भगवानका धर्मोंपदेश हरतरहसे मनुष्यको स्वाधीन बनानेवाला था। उसको वस्तुका स्वरूप, सच्चे सुखका मार्ग और मार्गको प्रकट बतलानेवाला कुतुबनुमा जैसा यंत्र भी अच्छीतरह समझा दिया गया था । अतएव यह मनुष्यकी इच्छापर निर्भर था कि चाहे वह पराधीन बना रहे और चाहे तो स्वाधीन बनकर सच्चे सुखको पाले ।
यह बात उस समयके लोगोंको भगवानके धर्मोपदेशसे बिलकुल स्पष्ट होगई थी कि जीवात्मा स्वयं अपने ही बलसे सच्चे सुखको पासक्ता है । इसलिये वह अपने ही आत्माका आश्रय लेना हर कार्यमें आवश्यक समझने लगे थे। स्वातंत्र्यप्रिय बनकर वह न्यायोचित रीतिसे जीवन यापन करते थे और अपना उद्देश्य सच्चे सुख-मोक्षधामको पाने में रखते थे। इसके लिए श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके शब्दोंमें वे लोग निम्न आयको काममें लाते थेः
"जह णाम कोवि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ॥२०॥ एवं हि जीवराया णादव्यो तहय सदहे दयो । अणुचरिदव्यो य पुणो सो चेवदु मोक्खकामेण ॥२१॥"
॥ समयसार ॥ भाव यही है कि जिसप्रकार कोई धनका लालची पुरुषः राजाको जानकर उसमें श्रद्धा कर लेता है और उनकी सेवा भक्ति