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ज्ञान प्राप्ति और धर्म प्रचार ।
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रहे हैं । मुख क्रूरताको धारण किये हुये हैं और शरीर भयानक - ता को लिये हुये है । यह दीठ पुरुष मुनिराज के समक्ष आकर गरज रहा है । वह कह रहा है कि रे मुनि! मैंने तुझसे यहांसे चले जानेको कहा. पर तू अपने पाखण्डके घमण्ड में कुछ समझता ही नहीं है। पर याद रख मुने ! मेरा नाम शेवरदेव नहीं जो मैं तुझे तेरे इस हठाग्रह के लिए अच्छी तरह न छका ढूं ! न मालूम तुझे मेरे विमानको रोक रखनेमें क्या आनन्द मिलता है। मुने ! अब भी मान जाओ और मेरे विमानके मार्गको छोड़ दो ।'
किन्तु इस देवके इन बचनों का कुछ भी उत्तर उन मुनिराजसे न मिला, वे शब्द उनके कानों तक पहुंचे ही नहीं। उन मुनिराजका उपयोग तो अपने आत्माके निजरूप चिन्तवनमें लग रहा था । उनका इन बाह्य घटनाओंसे सम्बन्ध ही क्या ? शेवरदेवका गर्जना कोरा अरण्यरोदन था । उसकी धृष्टता उन शांत मुनिराजका कुछ न बिगाड़ सकी थी । यह देखकर वह बिलकुल ही आगबबूला होगया । उसके नेत्रोंसे अग्निकी ज्वालायें निकलने लगीं और वह बड़ी भयंकरता से उन मुनिगजपर घोर उपसर्ग करने लगा । अनेक सिंहों और पिशाचों का रूप बनार कर वह उन मुनिराजको त्रास देने लगा । कभी गहन जल वरसाने लगा, कभी शस्त्रोंका प्रहार उनपर करने लगा और कभी अग्निको चहुंओर प्रज्वलित करने लगा !
यह शंवरदेव एक पूर्वभवनें कमठ नामक द्विजपुत्र था और मुनिराज भगवान् पार्श्वनाथके अतिरिक्त और कोई नहीं हैं। शंबरके कमठवाले भवमें भगवान उसके भाई थे और तबही से इनका