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भगवान पार्श्वनाथ ।
মুতালা মীদ্বয় ? 'तमोत्तु ममतातीत ममोत्त ममतामृत । ततामितमते तात मतातीतमृतेमित ॥१०॥
--श्री समन्तभद्राचार्यः । 'हे पार्श्वनाथ ! आप ममत्व रहित हैं !' ममता-तस्कर आपसे कोसों दूर रहता है। इसीलिये 'आपका आगमरूपी अमृत सर्वोत्कृष्ट है । आपका केवलज्ञान भी अतिशय विशाल और अपरिमित है ।' उसके धवल आलोकमें अज्ञानतमसे चुंधियाई हुई आंखे यथार्थ सत्य को देखने में समर्थ होती हैं । उस वैज्ञानिक उपदेश के बल ही लोक इस अगाध संसारसागरके पार पहुंचनेका साहस कर पाता है । सचमुच भगवानके वस्तुस्वरूपमय धर्म-पीयूष को पीकर ही महान् संसार-रोगमें ग्रसित मनुष्य उपसे मुक्ति पालेते हैं । इसीलिये हे भगवन् ! — आप सबके बंधु हैं ! जन्मजरा मरण रहित हैं तथा अपरिमित हैं ।' आपके ये चरणयुगल मेरा ही क्या सारे संसारका अज्ञानांधकार दूर करदें यही भावना है । आपके परमपावन चरित्रका अवगाहन करते हुये आपके दिव्योपदेशक दर्शन पालेना भी परम उपादेय और आवश्यक है। भगवान पार्श्वनाथके जीवनचरित्र में यही एक अवसर इतना महत्वशाली है कि इसका प्रभाव उसी क्षण दिगन्तव्यापी हो गया था। तीर्थकर भगवानका सर्वज्ञपदको प्राप्त होना और फिर प्राकृत धर्मामृतकी वर्षा करना बड़ा ही महत्वपूर्ण और प्रभावशाली कार्य है। जिसतरह भगवान महावीरके जीवन में उनके इस दिव्य अवसरका प्रभाव म०