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भगवान पार्श्वनाथ |
सर्वदा एकसा होना जरूरी प्रमाणित होता है । तो फिर यहां क्या बात है ? इसके लिये तीर्थंकर भगवानके बताये हुए स्याद्वाद सिद्धां -तका आश्रय लेना समुचित प्रतीत होता है । प्रत्येक वस्तुमें अनेक गुण हैं और परिमित शक्तिको रखनेवाले मनुष्यके लिये यह संभव नहीं है कि वह एक साथ ही उसके सब गुणोंका निरूपण कर सके । वह अपेक्षा करके ही उनका उल्लेख करेगा । यदि कोई कहे कि कुचला प्राण शोषक है, तो उसका यह कथन सर्वथा सत्य नहीं है, क्योंकि कुचलेमें प्राण पोषक तत्त्व भी मौजूद है । वातरोगमें वह बड़ा ही लाभप्रद है । इसलिये यह नहीं कहा जातक्ता कि कुचला प्राण शोषक ही है । अतएव तीर्थंकर भगवान के धर्मोपदेश के विषय में भी यही बात है । समय प्रवाहकी अपेक्षा उसके विधायक क्रममें किंचित् अन्तर उसी हद तक होतक्ता है जो उसके मूल भावका नाशक न हो और मूल भाव अथवा सैद्धांतिक तत्व सदा सर्वदा एक समान ही रहेंगे । यही बात दिगम्बर और श्वेतांबर -सम्प्रदाय के शास्त्रों में निर्दिष्ट की हुई मिलती है ।
दिगम्बर सम्प्रदाय में श्री वट्टकेर नामक एक प्राचीन और प्रसिद्ध आचार्य हुये हैं । उनका 'मूलाचार' नामका एक यत्याचार विषयक ग्रन्थ विशेष प्रामाणीक और बहु प्रचलित है । इस ग्रंथ में श्री - बट्ट केराचार्य ने सामायिक का वर्णन करते हुये स्पष्ट रीति से कहा है किवावी तित्थयरा सामाइयं संजयं उवदिसंति । छेदोवाणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य ॥ ७-३२ ॥
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अर्थात् - 'अजितसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत बाईस तीर्थंकरोंने सामायिक संयमका और ऋषभदेव तथा महावीर भगवान ने 'छेदो