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२४४ ] भगवान पार्श्वनाथ । इन दोनों समयोंके शिष्य स्पष्ट रूपसे योग्य अयोग्यको नहीं जानते हैं । इसलिये आदि और अन्तके तीर्थमें इस छेदोपस्थापनाके उपदेशकी जरूरत पैदा हुई है। यहां यह भी दृष्टव्य है कि आचाबने नं० ३३ की गाथामें छेदो यस्थापनाके लिये पंच महाव्रत शब्द व्यवहृत किया है । वास्तवमें छेदोपस्थापनाकी संज्ञा पंचमहाव्रत भी है और इसमें हिंसादिक भेदसे समस्त सावध कर्मका त्याग करना पड़ता है । श्रीभट्टाकलंकदेव अपनी ' तत्त्वार्थ राजवार्तिक ' में यही लिखते हैं; यथा
"सावा कर्म हिंसादिभेदेन विकल्पनिहात्तिः छेदोपस्थापना।" .. तथापि उन्होंने सामायिककी अपेक्षा व्रत एक ही कहा है और छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा उसके पांच भेद किये हैं; जैसे'सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एकं व्रतं । भेदपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविध व्रतम् ॥'
अस्तु; इस शास्त्रीय उल्लेखसे हमारे पूर्वोक्त वक्तव्यका समर्थन होता है । श्री वट्टकेरस्वामी इन गाथाओंसे कुछ अगाडीवाली गाथाओं द्वारा भी इसी भावको स्पष्ट करते हैं। वह तीर्थंकरोंका. और भी शासन भेद बदलाते हैं । लिखते हैं:--- 'सपडिक्कमणो धम्मो पुरिसस्सय पच्छिमस्स जिणस्स । अवराह पडिकम्मणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥७-१२५॥ जावेदु अप्पण्णो वा अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावेदु पडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२६ ॥ इरिया गोयर मुमिणादि सव्वमाचरदु मा व आचरदु। पुरिम चरिमादु सव्वे सव्वे णियमा पडिक्कमदि ॥१२७॥