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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार । और उनके इस परमपद प्राप्त करनेका उत्सव मनाने इन्द्र व देव देवांगनायें फिर आये थे । आचार्य कहते हैं कि --
ततः प्रघोषं जयकारतूर्येदिवौकसां उल्लसितं समंतात् । निरम्य निर्मुच्यरूपं तदैव वभूव शत्रुः स च कांदिशीकः ॥
अर्थात् - ' केवलज्ञानके प्रगट होते ही देवोंका बड़े जोर से जय जयकार शब्द होने लगा जिसे सुनते ही भूतानंद ( संवर) का sa एकदम शांत होगया और वह एकदम अवाक् रह गया ! ' और अपनेको अशरण जानकर भगवानकी शरण में आया ! उसे वहीं शांतिका लाभ हुआ । उसे ही क्या, सारे संसारको इस दिव्य अवसर पर आनंदरसका आस्वाद मिल गया था । 'प्रकटी केवल रविकिरन जाम, परिफूल्यो त्रिभुवन कमल ताम । आकास अमल दीसे अनूप, दिसि - विदिसि भई सब कमलरूप ॥
देवोंने आकर भगवानका केवलज्ञान पूजन किया और बड़े ठाठ से भगवानका समोशरण - सभाभवन रच दिया । मानस्तंभ, पीठिका, आदिकर संयुक्त दिव्यमणियों का बना हुआ वह समवसरण तीन लोककी संपदाको भी लज्जित कर रहा था । भगवान के सुन्दर समोशरणको देखकर पाखंडी लोगों को यह भय होता था कि यहां कोई इन्द्रजालकी माया फैला रहा है । परंतु भगवानके निकट आने से यह सब मिथ्या धारणायें दूर भाग जातीं थीं । समवशर
इस
के ठीक मध्य में उत्तमोत्तम पदार्थों से बनी हुई भगवानकी गंधकुटी थी। इसके बीचो बीचमें 'उदयाचल पर्वतकी शिखिरके समान सिंहों से चिह्नित, मणिमयी सिंहासनपर विराजमान परम तेजस्वी भगवान उस समय नम्रीभूत देवोंको ऐसे जान पड़ते थे मानो ये