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२२२] भगवान पार्श्वनाथ । साक्षात् सूर्य हैं ।' उनपर तीन छत्र लग रहे थे और यक्षेन्द्र चंवर ढाल रहे थे। वहां मंदर पवन चल रहा था और समवशरणके. बारह कोठोंमें अलग २ मुनि-आर्यिका, देव-देवांगना, श्रावकश्राविका, पशु-पक्षी आदि भव्यजन बैठे हुये अपूर्व शोभाको प्राप्त हो रहे थे । जिनेन्द्र भगवानके प्रभावसे समवशरणकी भूमि निर्दोष होगई थी। वहां उस समय किसीके परिणामोंमें किसी तरहका भी दोष नहीं था। सब ही जीव साम्यभावसे वहां विराजमान थे। आत्म-बलका प्रत्यक्ष साम्राज्य वहां फैल रहा था । आचार्य कहते हैं कि इसी समय भगवानके प्रमुख शिष्य स्वयंभू नामक गणधर भगवान उनके निकट आकर उनका स्तवन बड़े भक्तिभावसे करने लगे थे, यथादेवस्तदा गणधरः प्रथमं स्वयंभू
र्देवाधिदेवमुपढौक्य कृतप्रणामः । आनम्रमौलिकतया स्थितिमत्सु पश्चा
दिंद्रेषु वस्तुगणने हितमन्वयुक्तं ॥ अर्थात्-"प्रथम गणधर स्वयंभू देवाधिदेव भगवान् जिनेंद्रके पास आये । भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उनके समीपमें बैठ गये तथा अपने पीछे मस्तक नमाकर इन्द्रोंके बैठ जानेपर उन्होंने पदार्थो के विचारमें चित्त लगाया और वे इस प्रकार भगवान् जिनेंद्रकी स्तुति करने लगे।" इत्यायनेकनयवादनिगूढतत्त्वं,
जीवादिवस्तु खलु मात्मदृशामभूमिः । वं विश्वचक्षुरसि देव तव प्रसादात,
सन्निर्णयोस्तु सुलभः स्वयमस्मदाथैः॥