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२२८ ] भगवान पार्श्वनाथ । 'होनहार विरवानके होत चीकने पात' और 'महाजनाः येन गताः सा पन्थाः ।' अस्तु; भगवान् पार्श्वनाथ हमारे लिये पूर्णताके एक अनुकरणीय और अनुपम आदर्श हैं। उन्होंने अपने अमली जीवनसे उस समयकी जनताको अपने धर्मोपदेशकी सार्थकता' स्पष्ट कर दी थी। वे ग्राम-ग्राम और खेड़े-खड़ेमें पहुंचकर धर्मका प्राकृत स्वरूप सब ही जीवित प्राणियोंको समझाते थे । उनके निकट कोई खास मनुष्य समुदाय ही केवल धर्म धारण करनेका अधिकारी नहीं था। उन्होंने उस समयकी प्रगतिके विरुद्ध सब ही श्रेणियोंके मनुष्योंको धर्माराधन करनेका अधिकारी बताया था । ऊंच नीचका भेद लोगोंमेंसे हटा दिया था ! प्रत्येक हृदयमें स्वाधीनताकी पवित्र ज्योति जगमगा दी थी ! उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि पराश्रित होकर-दूसरों के मुहताज बनकर तुमको कुछ नहीं मिल सक्ता ! यदि तुम आत्म-स्वातंत्र्यको पानेके इच्छुक होस्वाधीनताके उत्कट पुनारी हो तो दृढ़ता पूर्वक संयमी बनकर अपने पैरोंपर खड़ा होना सीखो। तुमही अपने प्रयत्नोंसे अपनेको स्वाधीन और सुखी बना सकोगे ! उनका यह प्राकृत उपदेश हर समय और हर परिस्थितिके मनुष्योंके लिये परम हितकर है । यह एक नियमित सूत्र है जो तीन लोक और तीन काल में समान रूपसे लागू है । भगवान पार्श्वनाथ अपने इस दिव्यसंदेशको प्राकृतरूपमें दिगन्तव्यापी बनाते हुए समस्त आर्यखंडमें विचरे थे। श्री सकलकीर्ति आचार्य उनके विहारका विवरण इस प्रकार लिखते हैं:
'जिनभानूदये संचरंति साधु मुनीश्वराः। . तदाकुलिंगिनो मंदा नश्यति तस्करा इव ॥ १७ ॥