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भगवान् पार्श्वनाथ |
आपसी वैर चला आरहा है, यह पाठकगण भूले न होंगे । उसी पूर्व वैरके वशीभूत होकर जब यह कमठका जीव संवर ज्योतिषीदेव अपने विमान में बैठा हुआ अश्वत्थ वनमेंसे जारहा था, तब मुनिराजके ऊपर नियमानुसार विमानके रुक जानेसे वह अपना पूर्व वैर चुकाने के लिये उपरोक्त प्रकार भगवानपर घोर उपमर्ग करने लगा था | ईसाकी प्रारंभिक शताब्दियों में हुये महान् विद्वान् श्री समंतभद्राचार्यजी इस घटना का उल्लेख इन शब्दों में करते हैं कि"उपसर्ग युक्त जो पार्श्वनाथ हैं उनको धरणेन्द्र नामके सर्पराज अपने पीली विजलीकी भांति चमकते हुये कांतिवान् फण समूहसे वेष्टित किया है ( अर्थात् उपन दूर किया है ) - जिस प्रकार मानो संध्याकी लालिमा नष्ट हो जानेपर उसमें जो पीत विद्युतसे मिला हुआ पीतमेघ पर्वतको आच्छादित करता है । "
( बृहद् स्वयंभू स्तोत्र ८० ७१ )
पापाचारी दुष्ट संवरकी दुष्टाका पता जब धरणेन्द्रको लगा तो वह शीघ्र ही अपनी देवी पद्मावती सहित वहां आये । जिनके प्रतापसे वे नाग-नागिनी भवसे देव - देवी हुये, उनको वह कैसे भुला सक्ते थे ? वे फौरन ही भगवानकी सेवामें आकर उपस्थित हुये थे । उन्होंने भगवान्को नमस्कार किया और मणियोंसे मंडित अपना फण उनके ऊपर फैला दिया । पद्मावतीदेवीने उनपर सफेद छत्र लगाया था। इसी का उल्लेख श्री समन्तभद्राचार्यजीने किया है। एक अन्य आचार्य भी धरणेन्द्रके इस सेवाभाव के विषय में कहते हैं कि' असमालोचयन्नेव जिनस्वाजप्यतां परैः ।
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चक्रे तस्योरगो रक्षामीदक्षा हि कृतज्ञता ॥ ८० ॥