________________
wwwwwwwwwwww
२१६] . भगवान पार्श्वनाथ ।
(१४) মুলাঙ্গালি জ্বী সম্বৰূন্থে ! "बृहत्फणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरत्तडिपिङ्गरुचोपसर्गिणम् । जुगूह नागो धरणो धराधरं विरागसन्ध्यातडिदम्बुदो यथा ॥ स्वयोगनिस्त्रिंशनिशातधारया निशास यो दुर्जयमोहविद्विषम् । अवापदार्हन्समचिन्त्यमदभुतं त्रिलोकपूजातिशयास्पदं पदम् ॥
-श्री समन्तभद्राचार्यः । __बनारसके अश्वत्थ वनमें दिगम्बरमुद्रा धारण किये परम धीर वीर और गम्भीर मुनिरानोंके इन्द्र सुन्दर सुभग नीलवर्णके शरीरको धारण किये हुए कायोत्सर्ग आमनसे बिराजमान हैं ! न किसी जीवसे राग है और न किसीसे द्वेष है। अपनी शुद्धात्माके ध्यानमें वे लीन हैं । किन्तु यह क्या ? इन मुनींद्रकी शांतिमुद्राका द्रोही कौन बन गया ? किसने यह पर्वतोंका प्रहार करना इनपर शुरू कर दिया ? अरे, यहां तो तूफान ही पर्पा होगया ! प्रचंड आंधी चल पड़ी । बड़े२ विशाल पेड़ उखड़२ का इन प्रभुके ऊपर गिरने लगे ! विजलियां चमकने लगी-वजगत होते दिखाई पड़ने लगे। न जाने उस शांतमय बातारणमें यह कोलाहल कहांसे खड़ा होगया? किन्तु जरा देखो तो इस महा भयानक दशामें भी वे मुनिराज पूर्ववत् ध्यानमग्न हैं-वे अपनी योग समाधिसे जरा भी विचलित नहीं हुए हैं। वे ज्योंके त्यों नील इन्द्रमणिकी मनमोहनीय प्रतिमाकी भांति वैसे ही खड़े हुये हैं ! .. पाठक ! जरा संभलिये, इधर देखिये, यह विक्रालरूप धारण किये हुए कौन आरहा है ? क्रोधके आवेशमें इसके नेत्र लाल हो