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बद्ध थी । जैन शास्त्रोंमें उसकी अलगर श्लोक संख्या दी हुई है । " अतः इससे यह संभव है कि उस समय जैन श्रुत ही श्लोकसाहित्य' के नामसे परिचित हो । शायद इसमें भाषा विषयक आपत्ति हो, क्योंकि जैनश्रुत अर्द्धमागधी भाषामय बताया गया है। किंतु अर्धमागधीका उल्लेख भगवान महावीरजीके श्रुतज्ञानके मम्बन्ध में है और उसकी अर्धमागधी भाषा मागधदेश अपेक्षा ही बताई गई है । इस दशामें यह नहीं कहा जासक्ता कि भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित श्रुतज्ञान किस भाषा में ग्रन्थबद्ध था ? बहुत संभव है कि वह प्राचीन संस्कृत से मिलती जुलती भाषा में हो । भगवान ऋषभदेव द्वारा एक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ रचे जानेका उल्लेख मिलता ही है। इस प्रकार उपनिषदोंसे भी तत्कालीन जैन धर्म अस्तित्वका पता चलता है ।
भारतीय वैयाकरणों में शाकटायन बहु प्रसिद्ध और बहु प्राचीन हैं । इन्होंने अपने व्याकरण में जैनधर्मका शाकटायनकी साक्षी । उल्लेख किया है। बल्कि यह स्वयं जैन थे, यह बात प्रॉ० गुम्टव आपर्टने अपने " शाकटायन व्याकरण" (मद्रास सन् १८९३ ) की भूमिकामे अच्छी तरह सिद्ध की है। वह लिखते हैं, "पाणनिने अग्ने व्याकरण में शाकटायनका बहुत जगह वर्णन किया है। पातंजलि ने भी अपने
१ - जैनसिद्वांत भास्कर भा० १ किरण १ पृ० ५६-५७ । २-'मागध्यावंतिका प्राच्या शौरसैन्यर्धमागधी वाहीकी दक्षिणात्या च भाषाः सप्त प्रकीर्तिताः । चर्चासमाधान पृ० ३९-४० देखो । ३ - संक्षिप्त जैन इतिहास भा० १ पृ० १३ ।