________________
[ ४७ ]
- महावीरजी के प्रधान और प्रमुख गणधर गौतमखामी ब्राह्मण ही थे । उपनिषदों में जो वर्णन है उससे भी प्रगट होता है कि काशी, कौशल, विदेहके ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंकी प्रधानताको स्वीकार कर लिया था ।
इमी प्रधान भावके कारण व्रात्योंमें मुख्य क्षत्रिय साधुका गुणगान करना प्राकृत सुसंगत होगया था । अथर्ववेद के १५ वें स्कन्धमें जिस महावात्यका गुणानुवाद वर्णित है, वह सिवाय वृषभ या ऋषभदेवके और नहीं हैं । उसमें जो वर्णन है वह जैनाचार्य जिनसेन के आदिपुराणमें वर्णित श्री ऋषभदेवके चारित्र के समान ही है । अवश्य ही आदिपुराण अथर्ववेद से उपरांत कालकी रचना है, पर उसका आधार बहु प्राचीन है । अथर्ववेद में पहले ही महाव्रात्य प्रजापतिका अपनेको स्वर्णमय देखते लिखा है । वह 'एकम् महत् ज्येष्ठं ब्रह्म तपः सत्यम्' या 'दे होगये । उनकी समानता वहां ईशम और महादेवसे भी की है। जिन सहस्रनाममें भी वृषभदेव के ऐसे ही नाम ; प्रजापति, महादेव, महेश, महेन्द्रवन्दप, कनकप्रभ, म तप्तचामिकरच्छविः, निष्टाप्तकनकच्छायाः, हिण्यवर्ण, स्वणामाः, गतकुम्भनिवप्रभाः । अथर्ववेदके इस प्रारम्भसे ही
मिलते हैं
स्वर्णवर्ण.
अथर्ववेद के महाव्रात्य श्री ऋषभदेव थे ।
१ - यां भी प्रजापतिको एक महात्रात्य अर्थात् दि० जैन साधु बतलाया है, जो सम्भवतः श्री ऋषभदेव ही थे । अतएव इस उल्लेख से भी प्रजापति परमेष्ठिन्की वैदिक ऋचाओं में हमारा जैन सम्बन्ध प्रगट करना ठीक है।