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[४८] हमें वृषभदेवके दर्शन होनाते हैं, जो व्रतोंको सर्व प्रथम प्रगट करनेवाले थे, सर्व प्रथम तपश्चरणका अभ्यास और सत्य का उपदेश देनेवाले थे और जिन्होंकी वंदना देवदेवेन्द्रोंने की थी। जैन दृष्टि से "तपश्चरणकी मुख्यता कायोत्सर्ग आसन द्वारा सर्दी गर्मी एवं अन्य कठिनाइयोंको सहते हुये ध्यानमग्न स्थित रहनेमें स्वीकृत है। वृषभदेव इसी आसनमें तपस्यालीन रहे थे। अनेक जैन मंदिरोंमें आज भी उनकी मूर्ति कायोत्सर्ग रूपमें मिलती है । तीर्थकर भगवानके लिए देव निर्मित समवशरणका निक भी पहले होचुका है। अथर्ववेदमें अगाड़ी तीसरे प्रपतकमें वृषभदेवकी इस जीवन घटना अर्थात् कायोत्सर्ग तपस्या करने और फिर केवली हो देवों द्वारा रचे गये समोशरणमें बैठने का भी उल्लेख है। उसमें लिखा है कि "वह एक वर्ष तक सीधे खड़े रहे; देवोंने उनसे कहा, "व्रात्य, अब आप क्यों खड़े हैं ?"....उनने उत्तरमें कहा, "उनको मेरे लिये एक आसन लाने दो।" उस व्रात्यके लिये वे आसन लाये; उस आसनपर व्रात्य आरूढ़ होगए । उनके देवगण सेवक थे। इत्यादि इस व्रात्यके सम्बंध भी पगड़ी, धनुष और रथका उल्लेख है। इससे केवल महाव्रात्य प्रभुको एक क्षत्रियव्रात्य प्रगट करनेका ही भाव है । इसीलिए क्षत्री व्रात्योंके साधारण जीवन क्रियाओंपगड़ी आदिका उल्लेख चिन्ह रूप में कर दिया है। इन महाव्रात्यके सम्बंधमें अलौकिक बातोंका भी उल्लेख है। सारांशतः इन महापुरुमको गौरवविशिष्ट और वैदिक देवताओंसे भी उच्चतम प्रगट किया गया है। कितने ही बैदिक देवता इनके सेवक बताये गये हैं। यह महाव्रात्य सर्व दिशाओं में विचरते और उनके पीछे देवोंको जाते