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था, जिसमें २४ तीर्थंकर और अवशेष शलाका पुरुषोंके चरित्र.. वर्णित थे। श्री जिनसेनाचार्य इस बात को स्पष्ट प्रकट करते हैं:' कविपरमेश्वर निगदितगद्यकथामातृकं पुरोश्चरितम् । सकलछन्दोलङ्क तिलक्ष्यं सूक्ष्मार्थगूढपदरचनम् ॥ '
अतएव इन उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य प्रणीत उपरोक्त चरित्रग्रन्थोंके अतिरिक्त प्राचीनकाल में और भी ऐसे पुराण ग्रंथ मौजूद थे जिनमें श्री पार्श्वनाथजीका चरित्र वर्णित था । किंतु साम्प्रदायिक विद्वेष और कालमहाराजकी कृपा से वह आज उपलब्ध नहीं है ।
साथ ही यहां पर हम यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते हैं कि पार्श्वचरित्र में जो कमठ जीवके कमठ जीवका वैर यथार्थ वैरभावका वर्णन है, वह यथार्थ है । है - रहस्यपूर्ण अलंकार केवल कवियोंने अपने काव्यग्रन्थोंको नहीं है। सुललित बनाने के लिये इसका अविष्कार. नहीं किया था । दिगम्बर जैन संप्रदा यके प्राचीनसे प्राचीन ग्रन्थ में इस विषयका उल्लेख मौजूद है । कमठके जीव अरने भगवान पर उपसर्ग किया अंत में भगवानको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। संप्रदाय में एक स्पष्ट घटना के तौरपर प्रख्यात है। इतना ही क्यों ? प्रत्युत भगवान पार्श्वनाथजीकी जितनी भी प्रतिमायें मिलतीं हैं; वह सर्पफणयुक्त मिलतीं हैं। और वे इस घटना की प्रगट साक्षी हैं। वह फणमण्डल बहुधा सात अथवा नौ फणोंका होता है; परन्तु : सौ फणावाली प्रतिमायें भी मिली है। उड़ीसा और मथुराकी
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यह बात जैन
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