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कथा तो बिल्कुल पार्श्वनाथजीके पूर्वभववर्णन के ढंगकी है ।' उसमें भी वैरभावी मुख्यता है । यही हाल प्रद्युम्नसूरिकी समगदित्य कथाका है; जिसमें राजकुमार गुणसेन और ब्राह्मण अग्निशर्मन् के पारस्परिक विद्वेषका खासा दिग्दर्शन कराया गया है। बौद्धोंके 'धम्मपद' में (२९१) भी एक कथा इसी जन्मजन्मांतर में वैरभावकी द्योतक है। इसी प्रकारकी एक कथा 'कथाकोष' में दो ब्राह्मण भाइयोंकी दी हुई है; जिसमें एक भाईने लोभके वशीभूत हो दूसरे भाईके प्राण लेनेकी ठानी थी । आखिर पांच भवोंतक यह वैर चलता रहा था। सारांशतः इस ढंगकी कथायें भारतीय साहित्य में बहुतायत से मिलती हैं । परंतु हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि मरुभूति और कमठ जैसी पार्श्वकथासे सुन्दर और अनुपम कथा शायद अन्यत्र नहीं है । इसके लिए हम 'पार्श्वाभ्युदय काव्य' केटीकाकार योगिरा पंडिताचार्यके इस श्लोकको उपस्थित किये विना नहीं रहेंगे:
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श्री पार्श्वात्साधुः साधुः कमठात्खलतः खलः । पार्श्वाभ्युदयतः काव्यं न च कचिदपीष्यते ॥ १७ ॥ '
अर्थात् - 'श्री पार्श्वनाथसे बढ़कर कोई साधु, कमठसे बढ़कर कोई दुष्ट और पार्श्वाभ्युदयसे बढ़कर कोई काव्य नहीं दिखलाई देता है ।' निष्पक्ष विद्वान के लिये इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है । यहांपर स्थान और अवसर नहीं है कि हम पार्श्वाभ्युदय जैसे अनुपम साहित्यग्रंथों का रसास्वादन अपने पाठकों को करा सकें। १ - कथाकोष, पृ० ३१ - लाइफ एण्ड स्टोरीज ऑफ पार्श्वनाथ, भू० पृ० १३ ।