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[१०] प्राचीनता प्रकट करनेकी हम पूर्व पृष्ठोंमें भी बतला आये हैं और आवश्यकता। वह उस समय "व्रात्य" नामसे परिचित
था। सिंध प्रान्तके मोहन जोडेरो नामक स्थानसे जो गत वर्षों में ई० पूर्व करीब तीन चार हजार वर्षों की चीजें मिली हैं, वे भारतीय असुर सभ्यताकी द्योतक मानी गई हैं। उनमें ऐसी मुद्रायें भी मिली हैं, जिनपर पद्मासन मूर्ति अंकित है। विद्वान इन सिक्कोंको बौद्ध अनुमान करते हैं; किन्तु जब बौद्धधर्मकी उत्पत्ति ई० पूर्व छठी शताब्दिमें मानी जाती और बौद्धोंमें मूर्ति प्रथा ईस्वीसन्के प्रारम्भिक काल में प्रचलित हुई कही जती है, तब उक्त मुद्रा बौद्ध न होकर जैन होना चाहिये । उसका जैन होना अन्यथा भी संभवित है । 'विष्णुपुराण' से यह स्पष्ट ही है कि असुर लोगों में जैनधर्म का प्रचार होगया था। और उधर जैन शास्त्रोंसे कलतक सिन्ध प्रान्तमें कई एक तीर्थ होनेका वर्णन मिलता है; जिनका आज पता तक नहीं है। अस्तु; उक्त मुद्राका जैन होना भी जैनधर्मके प्राचीन अस्तित्वका समर्थक है। अतएव भगवान पार्श्वनाथको जैनधर्मका 'संस्थापक मानना नितान्त भ्रांतिपूर्ण है; किन्तु संभव है कि यहांपर कोई पाठक महोदय जैनधर्मकी प्राचीनताको प्रगट करनेवाले, हमारे अब तकके कथनको अनावश्यक खयाल करें और वह कहें कि किसी धर्मकी प्राचीनता उसकी अच्छाईमें कारणभूत नहीं होसक्ती ! वेशक उनका कहना किसी हद तक ठीक है परन्तु हमारे उक्त प्रयासको अनावश्यक बताना हमारे प्रति तो अन्याय ही है; परन्तु साथ ही उसके लिखे जानेके उद्देश्यसे अनभिज्ञताका द्योतक भी है।