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[१९] दूसरे रूपमैं मिल नहीं सक्ती । और इसलिये उनके जीवनचरित्र सम्बन्धमें जो भी ग्रंथ उपलब्ध हों, उनमें कोई भी अन्तर नहीं होना चाहिए। किंतु बात दरअसल यूं नहीं है। इन सारे ग्रन्थोंमें एक दूसरेसे विभिन्नता मौजूद है । और यह विभिन्नता केवल रचनाभेदकी नहीं है। प्रत्युत जीवन घटनाओंकी है । दिगंबर और श्वेतांबर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें आम्नाय भेदके अनुकूल विपरीतता रहना प्राकत सुसंगत है; परन्तु स्वयं दिगंबर संप्रदायके ग्रन्थोंमें भी न्यून रूपमें यही बात देखनेको मिलती है । बेशक उनमें जीवन घटनाओंमें अन्तर नहीं है। परन्तु विवरणमें है । लेकिन प्रश्न यह है ऐसा क्यों है ? इसके उत्तरमें हम स्वयं कुछ न कहकर प्रसिद्ध विद्वान् स्व. पं० टोडरमलनीके निम्न शब्दोंको उद्धत कर देना पर्याप्त समझते हैं
__ "ऐसे विरोध लिये कथन कालदोषसे भये हैं। इस काल विर्षे प्रत्यक्षज्ञानी व बहुश्रुतीनिका तो अभाव भया और स्तोकबुद्धि ग्रन्थ करनेके अधिकारी भये, तिनको भ्रमसे कोई अर्थ अन्यथा भासा तिसको तैसा लिखा अथवा इस काल विर्षे कई जैनमत बिर्षे भी कषायी भये हैं। कोई कारण पाय अन्यथा कथन उन्होंने मिलाये हैं । इसलिये जैनशास्त्रोंके विर्षे विरोध भासने लगा । सो जहां विरोध भासे तहां इतना करना कि इस कथनवाला बहुत प्रामाणिक है या इस कथनवाला बहुत प्रामाणिक है। ऐसा विचार कर बड़े आचार्यादिकनिकरि कहा कथन प्रमाण करना । इत्यादि"
-मोक्षमार्ग प्रकाशक अधि० ८। अतएव काल महाराजकी कपासे प्रत्येक ग्रंथकारने निस