________________
[ ५१
आवश्यक्ता ही आविष्कारकी जननी मानी गई है। जैनधर्म सं विद्वानोंके अयथार्थ उल्लेखोंने ही हमें बाध्य किया है कि हन जैनधर्मकी प्राचीनताको स्पष्ट करदें । साहित्य के लिये यह गौरवकी बात है कि वह नितान्त स्वच्छ, निर्भ्रान्त और यथार्थ हो । इस हेतु साहित्य हितके नाते भी हमारा यह प्रयास अनावश्यक नहीं है । तिसपर जैनधर्मकी यह बहु प्राचीनता उसके महत्वको बढ़ानेवाली ही है। बेशक उसके सिद्धांत और आचार विचार उसकी
1
खूबी प्रगट करते ही हैं, परन्तु वह आर्योंका सर्व प्राचीनमत है, यह भी उसके लिये कुछ कम गौरव या महत्वकी बात नहीं है । अस्तु;
राजा विश्वसेन |
अब यह बिलकुल स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथनी न तो जैनधर्म के संस्थापक थे और न वे कोई काल्पनिक पुरुष थे । प्रत्युत वे ईसा पूर्व आठवीं शताब्दिमें हुये एक ऐतिहासिक महापुरुष थे । इस अवस्थामें इन अनुपम महापुरुषके गौरवमय जीवनचरित्रका दिग्दर्शन कर लेना समुचित और आवश्यक है । यह हम पहले ही बतला चुके हैं कि इन अनुपम तीर्थंकरका जीवन वृत्तांत जैन ग्रन्थोंमें मिलता है और यह क्षत्रिय राजकुमार थे । प्रस्तुत पुस्तकको पढ़ने से पाठकों को स्वयं मालूम होजायगा कि वे इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री राजा विश्वसेन अथवा अश्वसेन और उनकी रानी ब्रह्मादेवीके सुपुत्र थे और उनका जन्म बनारस में हुआ था । ब्राह्मण ग्रन्थों में उपरोक्त नामका कोई राजा नहीं मिलता है । हां, अश्वसेन नामक एक नागवंशी राजा का पता ब्राह्मण साहित्य में