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ere 'अथर्ववेद' में जो व्रात्य उल्लेख हैं उनको ले लीजिये । यह तो विदित ही है कि 'बहुत असें अथर्ववेद और जैनधर्म | तक अथर्ववेद वेद ही नहीं माना जाता रहा है। इसकी वेद रूपमें मान्यता वैदिकमतके मेल मिलाप और पारस्परिक ऐक्य भावकी द्योतक है। सचमुच इसमें उस समयका जिक्र है कि जब आर्य लोग सामाजिक महत्ता को ढीली करके द्राविड़ साहित्य और सभ्यताकी ओर उदारता से पग बढ़ा रहे थे । ऐसे समय स्वभावतः आर्योंके विविध मतों में परस्पर ऐक्य और मेलमिलापके भाव जागृत होना चाहिये थे । तिसपर व्रात्योंके बढ़ते प्रभावको देखकर ऐसा होना जरूरी था । 'अथर्ववेद' अंगरिस नामक ऋषिकी रचना बताई जाती है और 'जैनोंके 'पउमचरिय' में इन अंगरिसका जैन मुनिपदसे भ्रष्ट होकर अपने मतका प्रचार करना लिखा है । इस दशा में अथर्ववेद में जैनध
के सम्बंध में जो बहुत कुछ बातें मिलती हैं वह कुछ अनोखी नहीं हैं। अथर्ववेद १५ वें स्कन्धमें यही भाव प्रदर्शित हैं। वहां एक महाव्रात्यकी गौरव गरिमाका बखान किया गया है। यह महाव्रात्य वेद लेखककी दृष्टिमें किसी खास स्थानका कोई क्षत्रिय व्रात्य था | व्रात्य (जैन) धर्मकी प्रधानता के समय समाजमें क्षत्रियोंका आसन ऊँचा होना स्वाभाविक है और सचमुच ईसासे पूर्व छठी, सातवीं शताब्दियों बल्कि इससे भी पहले से क्षत्रियोंकी प्रधानताके चिन्ह उस समय भारत में मिलते थे । उस समयका प्रधान धर्म, क्षत्रियधर्म (जैनधर्म ) था; परन्तु इसके अर्थ यह भी नहीं हैं कि उसमें ब्राह्मणोंके लिये कोई स्थान ही न था । प्रत्युत भगवान्