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[२१] वीं शताब्दिमें हुआ बतलाते हैं । किन्तु जो हो, इससे यह स्पष्ट है कि वैयाकरण शाकटायन ऋग्वेदके प्रतिशाख्योंके पहले होचुके थे और इस दशामें भी जैनधर्म बहु प्राचीन सिद्ध होता है । हिन्दुओंके पुराण ग्रन्थोंसे भी जैनधर्मकी प्राचीनता स्वयंसिद्ध
है। उनके सर्व प्राचीन विष्णुपुराणमें हिन्दपुराणोंमें जैन- जैन तीर्थकर सुमतिनाथका उल्लेख है। धर्मकी साक्षी। तथापि उसमें जैनधर्मकी उत्पत्ति देव
और असुरोंके युद्धके परिणाम स्वरूप स्वयं विष्णुके शरीरसे उत्पन्न मायामोह नामक पुरुषके द्वारा बहु प्राचीनकाल में हुई बतलाई गई है । मायामोह मुण्डेसिर, नग्नरूप,. हाथमें मयूरपिच्छ लिये और तपस्या करते नर्मदा तटपर अवस्थित असुरोंके आश्रममें पहुंचे और उनको जैनधर्मरत किया, यह भी इस पुराणमें लिखा है । यह असुर 'आईत' कहलाये । ( देखोबंगाली आवृत्ति, अंश ३ अ० १७-१८), भागवतपुराणमें जैनधर्मके प्रणेता श्री ऋषभदेवजीका विशेष वर्णन है । उनको वहां २२ अवतारोंमें आठवां बतलाया है। उनकी वंशपरम्परा सम्बंधमें लिखा है कि १४ मनु हुये, जिनमें स्वयंभू मनु पहले थे। ब्रह्माने जब देखा कि मनुष्य संख्या नहीं बढ़ी तो उसने स्वयंभूमनु और सत्यरूपाको पैदा किया और सत्यरूपा स्वयंभूमनुकी पत्नी हुई। प्रियव्रत नामक पुत्र हुआ; निसके आग्नीन्ध और उमके नाभि हुये । नाभिका विवाह मरुदेवीसे हुआ और इनसे श्री ऋषभदेव
१-हिस्ट्री एण्ड लिट्रेचर ऑफ जैनीज्म पृ० १० । २-इन्डियन एन्टीक्वेरी भा०९पृ० १६३।