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तो स्वयं भगवान महावीर का जन्म ही हुआ था । और भगवानके T माता-पिता एवं अन्य परिजन पहले से ही जैनधर्मके श्रद्धानी थे। द्राविडलोगों ने जैन धर्मका बहु प्रचार रहा है, यह सर्व प्रकट है । -लात्यायन सूत्रोंसे यह प्रकट ही है कि व्रात्योंका मुख्यस्थान बिहार था, जो जैनतीर्थंकरों के कार्यका भी लीलास्थल रहा है। अतएव इन बातों को देखने से ही यह ठीक जंचता है कि व्रात्यलोग जैन थे, अथवा जैनोंका प्राचीन नाम 'वात्य' था |
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किन्तु इतने परसे ही सन्तोष कर लेना ठीक नहीं है । अगाड़ी यह बात प्रगट है कि वेदोंसे
वेदोंके अरुणमुख यति एक यज्ञ विरोधी दलका अस्तित्व सिद्ध भी जैन थे । है, जो यति कहलाते थे । यही यति 1 'अरुणमुख' कहे गये हैं अर्थात् इनके
मुखमें का पाठ नहीं था । तथापि यह वेदों के यज्ञविधान के भी विरोधी थे, क्योंकि इसी कारण इन्द्रने इन्हें सजा दी थी । ताण्डिय ब्राह्मण में (१४/२/५/२८) यह यूं लिखी हैं:
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'इन्द्रो यभ्यः प्रयच्छ तम् अस्ती लावग अभ्यवदतसोऽशुद्ध मन्यत स एतत् शुद्धाशुद्धियं अपश्यत्तेन अशुद्वयव ।'
अत्- "इन्द्रने यतियों को गीदड़ों के सम्मुख डाल दिया । एक दुर्वाग ने उससे कहा - ( टीकाकार के अनुसार उसे ब्राह्मण हत्याका ती बताते हुये ) " उसने अपने आपको अशुद्ध
१- त्रि क्लैन्स इन बुद्धिस्ट इन्डिया पृ० ८२ । २ - जर्नल रायल ऐशियाटिक सोसाइटी, बबई, No. LIII, भाग १९