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[४१ 'घोटाला है। 'गरगिर' का अर्थ विषभक्षक अथवा विषाक्तभाषीके हो सक्ते हैं । दोनों ही तरह यह शब्द उपहास सूचक है । सायणके अर्थ इस आधारपर अवलंवित हैं कि आगन्तुक रूपमें व्रात्य वह भोजन भी ग्रहण कर लेते हैं जो ब्राह्मणों के लिये बना हो; अर्थात् उनकी दृष्टिसे जिसको (आहारदानको) ग्रहण करनेका अधिकार केवल ब्राह्मणों हीको था, इस दशामें व्रात्योंद्वारा अपने इस अधिकारका अपहरण होता देखकर ब्राह्मणोंने उपरोक्त शब्दका व्यवहार उनके लिए भर्त्सनामय आक्षेपमें किया है और यदि उक्त शब्दका अर्थ अग्निस्वामीके अनुसार माना जाय तो उसके अर्थ "विषाक्त भाषी" के होंगे, क्योंकि वे (व्रात्य) उस मंत्रका उच्चारण नहीं करेंगे जिसके प्रारम्भमें 'ब्रह्म' शब्द होगा। इससे प्रगट है कि व्रात्य ब्रह्मवादियोंके विरोधी थे और वे वैदिक मंत्रोंका उच्चारण नहीं करते थे। यह दूसरे अर्थ ही समुचित प्रतीत होते हैं क्योंकि 'जिन' या 'अर्हन्त' को निर्दिष्ट करनेमें इसका बहु व्यवहार हुआ मिलता है। जिनसेनाचार्य अपने 'जिन सहस्रनाम में निम्नशब्दोंका उल्लेख करते हैं:-"ग्रामपतिः, दिव्यभाषापतिः, वाग्मीः, वाचस्पतिः, वागीश्वरः, निरुक्तवाक्, प्रवक्तवचसामीसः, मंत्रवित, मंत्रकृत इत्यादि ।" इन उल्लेखोंसे एक अन्य प्रकारके मंत्रोंका होना स्पष्ट है, जिनका सम्बंध वैदिक मंत्रोंसे सिवाय विपरीतताके और कुछ न था। सचमुच तीर्थकरोंके द्वारा निर्दिष्ट हुए मंत्रोंका ही प्रयोग 'व्रात्यों' (जैनों) द्वारा होना उपयुक्त है; जो उनके लिये उतने ही प्रमाणीक थे जितने कि वैदिक मंत्र वेदानुयायियोंके लिए थे । अतएव उनका वेदमंत्रोंको उच्चारण न करना युक्तियुक्त और सुसंगत है और इस दशामें