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[४०] द्विजोंके अतिरिक्त अन्य अनार्य लोग भी संमिलित हैं । जैसे कि जैनोंमें वस्तुतः थे । मनुने ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य इन तीन तरहके ब्रात्योंका उल्लेख किया ही है । अब जब कि ब्रात्यमतका उद्देश्य चेदों के विरुद्ध बहु प्रचार करनेका था तो यह नितान्त आवश्यक है कि वे ऐसी भाषामें अपने सिद्धान्तोंको प्रगट करते जो सरल
और जनप्रिय होती। सचमुच व्रात्योंकी भाषा जैनोंकी प्राकृत भाषाके समान ही थी क्योंकि उनके विषयमें कहा गया है कि'जो बोलनेमें सुगम है उसको वे कठिन बतलाते हैं।' (अधुरुक्तम् वाक्यम् दुरुक्तम् आहुः) इस उल्लेखसे साफ जाहिर है कि वे संस्कृत नहीं बोलते थे । अतएव इस साञ्जमस्यसे भी 'व्रात्यों' का जैन होना सिद्ध है । मध्यकालमें भी जैन लोग 'व्रती' ( Verteis) नामसे परिचित थे ।* . ब्राह्मण ग्रंथोंमें व्रात्योंका उल्लेख 'गरगिर' रूपमें भी हुआ है;
जिसका अर्थ सायण उन लोगोंसे करता 'गरगिर' शब्द भी है जो विष भक्षण करते थे । ब्राह्मणके व्रात्योंको जैन मूल श्लोकके साथ यह व्याख्या वाक्य सूचक है। भी है कि "ब्रह्मदयं जन्यं अन्नुम अदंति।"
सायण इसके अर्थ करता है कि "वे ब्राह्मणों के लिये खास तौरसे बनाये गये भोजनको खाते हैं।" लात्यायन सूत्रोंके टीकाकार अग्निस्वामी लिखते हैं कि “गरगिर व एते ए ब्रह्मा जन्ममंत्रम् अदंति ।" सचमुच यहां कुछ गड़बड़ ____* सूरीश्वर और सम्राट्, पृ. ३९८-३९९ और डिस्क्रिपशन ऑफ एशिया पृ० ११५ व २१३ ।