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दिया । बृहदूगिरीने ब्राह्मण गौरव पाने की अभिलाषा की, सो इंद्रने "बृहद गिरि' समनके बल उसे वह गौरव दिया । और रयोवजने पशुधन चाहा, इंद्रने 'रयोवनीय' समनके द्वारा उसे पशुवन भेंट किया | इस ग्रन्थके टीकाकार इन यतियोंकों वह व्यक्ति बतलाते हैं जो वेदविरुद्ध नियमों का पालन करते थे यज्ञोंके विरोधी थे और कर्मकाण्डके निषेधक थे। इनमें ऐसे ब्राह्मण थे जो 'ज्योतिप्तोम' आदि यज्ञ न करके अन्य प्रकार जीवन यापन करते थे । इन उल्लेखों में (१) यतियों को यज्ञ विरोधी सन्यासी लिखा है, जो यज्ञ मंत्रों का भी उच्चारण नहीं करते थे; (२) वैदिक आर्यों में उनकी प्रसिद्धि नहीं थी और वे इन्द्र एवं इन्द्रभक्तों द्वारा प्रताड़ित हुये 'थे; (३) किन्तु जिस उद्देश्य के लिए यह यती खड़े हुये थे, वह एक समय इतना प्रबल होगया कि इन्द्रपूजा और सोमयज्ञ बन्द हो गये । * स्वयं इंद्रपर हत्याओंके पातक लगाए गए । ( ४ ) इस झगड़ेके अन्त में यज्ञवादकी विजय हुई और इन्द्रपूजा एवं यज्ञोंकी पुनरावृत्ति हुई । (५) यह यती जैन यतियों के समान हैं; क्योंकि
* 'मत्स्यपुराण' के निम्न वर्णनसे भी यह बात प्रमाणित होती है कि एक समय अवश्य ही जैनधर्मकी इतनी प्रबलता होगई थी कि इन्द्रका मान और विनय जाता रहा था:
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इन्द्र राज्य विहीन बृहस्पतिके पास अपनी फरियाद लेकर पहुंचा । बृहस्पति गृहशांति और पौष्टिक कर्मद्वारा इन्द्रको वलिष्ट बनाया । और धर्मके आश्रयसे उसने रजिपुत्रों को, (जिनने इन्द्रको राज्यच्युत किया था) मोहित किया ! बृहस्पतिने ख़ूब ही रजिपुत्रोंको वेदत्रय भ्रष्ट किया । इसपर इन्द्रने उन वेद बाह्य और हेतुवादी रजिपुत्रोंको वज्रसे नष्ट कर - दिया । " ( मत्स्य पु० आनन्दाश्रम० अ० २४ लो० २८-४८ ।