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थे तब एक दिगंबर जैन मुनि उनके पास आये थे और उन्हें देव, शास्त्र, गुरुका स्वरूप समझाकर जैनधर्मका श्रद्धानी बनाया था ।' 'वामनपुराण' में वेणको ब्रह्मासे छठी पीढ़ीमें हुआ बताया है । इससे भी जैनधर्मकी प्राचीनता प्रमाणित है । 'शिवपुराण' में ' अर्हन् भगवान् का शुभ नाम पापनाशक और जगत सुखदायक बतलाया गया है । नागपुराण में कहा है कि जो फल ६८ तीर्थोके यात्रा करमें होता है, वह फल आदिनाथ (ऋषभदेव ) के स्मरण करनेसे होता है । इस प्रकार पुराणग्रन्थोंसे भी जैनधर्मकी प्राचीनता स्पष्ट है । इन पुराणोंके कथन बहुप्राचीन कथानकोंके आधारपर हैं और उनमें सत्यांश मौजूद है; यह बात आधुनिक विद्वान भी स्वीकार करते हैं । *
१ - अं० जैनगजट भा० १४ पृ० ८९ - वेणस्य पातकाचारे सर्वमेव चदाम्यहम् ॥ तस्मिन्-छासतिं धर्मज्ञे प्रजापाले महात्मनि । पुरुषः कश्चिदायातो ब्रह्मौिधरस्तथा ॥ नमरूपो महाकायः सितमुण्डो महाप्रभः । मार्जनीं शिखिपत्राणां कक्षायां स हि धारयन् ॥ पठमानो महच्छास्त्रं वेदशास्त्रविदूषकम् । यत्रवेणी महाराजस्तत्रोपायात्वरान्वितः ॥ अर्हन्तो देवता यत्र निर्ग्रन्थों गुरुरुच्यते । दया वै परमो धर्मस्तत्र मोक्षः प्रदृश्यते ॥ एवं वेणस्य वै राज्ञ: सृष्टिरेव महात्मनः । धर्माचारं परित्यज्य कथं पापे मतिर्भवेत् ॥ R. C. Dutt, Hindu Shastras Pt. VIII. pp. 213-22
२-अं० जैनगजट भा० १४ पृ० १६२ हाथीगुफावाले शिलालेख में जैन सम्राट्के वीरत्वकी उपमा राजा वेप से दी है। इससे भी राजा वेणका जैन होना प्रगट है । (देखो जर्नल आफ दी बिहार एण्ड ओरिसा रिसर्च सोसाइटी, भा० १३ पृ० २२४ | ३ - सत्यार्थ दर्पण पृ० ८९ ।
४- पूर्व प्र० पृ० ८७ यथा: - 'अकषष्टिषु तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत् । आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत् ॥”
*Macdonell's History of Sanskrit.