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अबतकके विवेचनसे जैनधर्मकी प्राचीनताका बोध पूर्णरूपेण
होगया है; परन्तु हम पूर्वमें यह बतला 'वास प्राचीन जैनोंका आये हैं कि भगवान महावीरनीक पहले द्योतक है। जैनोंका उल्लेख 'व्रात्य' रूपमें उसी
तरह होता था, जिस तरह उपरांत वे 'निर्ग्रन्थ ' और 'अहंत' नामसे प्रख्यात् हुये थे और अब जैन नामसे जाहिर हैं। इसलिये यहांपर हमको अपने इस कथनकी सार्थकता भी प्रकट कर देना उचित है। इसके लिये हमें दक्षिणी जैन विद्वान् प्रो० ए० चक्रवर्ती महोदयके महत्वपूर्ण लेखका आश्रय लेना पड़ेगा, जो अंग्रेजी जैनगनट (भा० २१ नं. ६) में प्रकाशित हुआ है । इस साहाय्यके लिये हम प्रोफेसर साहबके विशेष
आभारी हैं। वैदिक साहित्यमें 'व्रात्य' शब्दका प्रयोग विशेष मिलता है और उससे उन लोगोंका आभास मिलता है जो वेदविरोधी थे
और जिनको उपनयन आदि संस्कार नहीं होते थे । मनु व्रात्य विषयमें यही कहते हैं कि "वे लोग जो द्विजों द्वारा उनकी समातीय पत्नियोंसे उत्पन्न हुये हों, किन्तु जो धार्मिक नियमों का पालन न कर सकनेके कारण सावित्रीसे प्रथक कर दिये गये हों, व्रात्य हैं।" (मनु० १०।२०) यह मुख्यता क्षत्री थे । मनुनी एक व्रात्य क्षत्रीसे ही झल्ल, मल्ल, लिच्छवि, नात, करण, खस और द्राविड़ वंशोंकी उत्पत्ति बतलाते हैं । ( मनु० १०२२ ) व्रात्य लोगोंका पहनावा भी प्रथकरूपका था। उनकी एक खास तरहकी पगड़ी (नियनह) थी-वे एक वल्लम और एक खास प्रकारका धनुष (ज्यहोद) रखते थे-एक लाल कपड़ा पहनते और रथमें चलते थे।