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अब यदि ब्राह्मण साहित्य पर दृष्टि डाली जाय तो प्रगटतः उसमें भी जैन व्याख्याको विश्वसनीय वेदोंमें जैन उल्लेख ! बतलाया हुआ मिलता है। ब्राह्मण साहित्यमें सर्व प्राचीन पुस्तकें वेद माने गये हैं और इनमें ऋग्वेद संसार भर में सर्व प्राचीन पुस्तक बतलाई गई है । अतएव यहां पर हम पहले इन वेदोंमें ही जैन उल्लेखों को देख लेना उचित समझते हैं। यह प्रायः सबको ही मान्य है कि जैनियोंके आप्तदेव 'अर्हत्' अथवा 'अर्हन्' नामसे परिचित हैं। सिवाय बौद्धों और किसी भी मतने इस शब्दका व्यवहार नहीं किया है; किन्तु बौद्धों निकट भी इसके अर्थ एक आप्तदेवसे नहीं हैप्रत्युत उनके एक खास तरहके साधुओं का उल्लेख 'अर्हत' रूप में होता है । अतएव जैनियोंके ही 'उपासनीय आप्त अईन' नामसे उल्लेखित मिलते हैं और इन्हीं 'अर्हन्' का उल्लेख ऋग्वेद संहिता (अ० २ ० १७) में हुआ है ।' कालीदासजीके 'हनुमान नाटक ' (अ० १ श्लो० ३ ) में भी यही कहा गया है कि 'अर्हन्' जैनियोंके उपासनीय देव हैं । अगाड़ी ऋग्संहिता में (१०/१३६ - २ ) मुनयः वातवसनाः रूपमें भी दिगम्बर जैन मुनियोंका उल्लेख मिलता है। डॉ० अलब्रेट वेबरने वेदके यह शब्द जैन मुनियोंके लिये व्यवहृत हुये स्वीकार किये हैं । ऋष, सुपार्श्व, " नेमि आदि नाम
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१ - पूर्व प्रमाण । २ - मेक्षमूलर द्वारा सम्पादित, लन्दन १८५४की छपी, भा० २ ० ५७९ । ३ - इन्डियन एण्टीक्वरी भा० ३० १९०१ और जिनेन्द्रमत दर्पण पृ० २१ । ४ ऋग्वेद ३०-३, ३६-७, ३८-७ । ५ - यजुर्वेद - ॐ सुपार्श्वमिन्द्रहवे ।' ६ - वाजस्यनु प्रसव आवभूवना च वि भुवनानि सर्वतः । सनेमिराजा परियाति विद्वान् प्रजां पुष्टिवर्धयनमानो ॥ अस्मेस्वाहा ॥ अ० ९ मं० २५ ॥