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साधु ही थे । इसके साथ ही 'योगवाशिष्ट में जो श्री रामचंद्रजीके मुखसे 'जिन' (जिनदेव, जिनकी अपेक्षा 'जैन ' नाम है)के समान होनेकी इच्छा प्रगट कराई गई है, इससे उक्त वक्तव्यकी
और भी अधिक पुष्टि होती है।' वाल्मीकीय रामायणमें है कि रामचन्द्रनी राजसूय यज्ञ करनेको रानी हुये थे, परन्तु भरतनीने उन्हें अहिंसाधर्मका महत्व समझाकर ऐसा करनेसे रोक दिया था। (देखो प्रिंसपिल्स आफ हिन्दू ईथक्त ए० ४४६) रामचन्द्रनीके 'श्वसुर जनक बहुप्रसिद्ध हैं । जैन पुराणोंसे जाना जाता है कि वह पहले वेदानुयायी थे; परन्तु उपरांत जैनधर्मका प्रभाव उनपर पड़ा था और वे जैनधर्मके ज्ञाता हुये थे। हमें हिन्दू शास्त्रोंमें भी एक जनक राजाका उल्लेख इसी तरह मिलता है, किन्तु वह काशीराज बतलाये गये हैं। कहा है कि एकवार महर्षि गार्य उनके पास पहुंचे और उन्हें उपदेश देने लगे। पर वह उनको अधिक उपदेश दे न सके; प्रत्युत उन्होंने स्वयं ब्राह्मण होते हुये भी उन क्षत्रीरानसे ब्राह्मधर्म-आत्मधर्मका उपदेश ग्रहण किया था। जैनधर्म क्षत्रियोंद्वारा प्रतिपादित आत्मधर्म ही है। अतएव रामायणके जमानेमें भी जैनधर्म वर्तमान था। रामायणके बाद महाभारत कालमें भी जैनधर्मके चिन्ह मिलते
हैं। 'महाभारत' के अश्वमेघपर्वकी अनुमहाभारतके समय गीता अ० ४८ श्लो० २से १२ तकमें जैन धर्म। जैन और बौद्धके अलगर होनेकी साक्षी
है। इसके अतिरिक्त महाभारतके आदि १-योगवाशिष्टं अ. १५ श्लोक ८ और जैनइतिहास सीरीज भाग १ पृ. १०-१३।२-उत्तरपुराण पृ० ३३५ । ३-विश्वकोष भाग पृ० २०२।