Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
लौह लेखनीके धनी •पं० हेमचन्द्र शास्त्री, अजमेर
सम्भवतः सन् १९३१ का सत्र शुरू हुआ था। मैंने जम्बू विद्यालय, सहारनपुरसे प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण कर श्री० स्याद्वाद दि० जैन विद्यालय, बनारसमें प्रवेश पाने के लिये विद्यालयका प्रवेश फार्म भेजा था। मझे वहाँ प्रवेश मिल गया और वहाँका छात्र बन गया। उस समय विद्यालयकी प्रतिष्ठा शिक्षा जगतमें आदरणीय रही।
विद्यालयके स्नातक अबतक न्यायाचार्य तो हुए थे सो भी अपूर्ण थे । परन्तु अन्य व्याकरण-साहित्य आदि विषयके कोई विद्वान जैन समाजमें नहीं थे। सर्वप्रथम इन विषयोंके विद्वानोंमें यदि किन्हींका नाम गिना जा सकता है तो वे हैं श्री पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य और श्री पं० परमानन्दजी साहित्याचार्य । श्री पं० परमानन्दजी पंचकूलामें कार्यरत रहे और वे अब हमारे बीच में नहीं हैं।
सर्वप्रथम मैंने इन दोनों वरिष्ठ स्नातकोंको विद्यालयमें देखा। वहाँका सात्विक जीवन और शिक्षाकी लगन अपूर्व ही थी। आज उसीका फल है कि मेरा भी जीवन जिनवाणी आराधनामें व्यतीत हो रहा है ।
__ श्री व्याकरणाचार्यजी अत्यन्त सरल, मृदुस्वभावी, दुबले पतले, संयमशील, सतत ज्ञानाभ्यासी, कर्मठ छात्र रहे। आप किसी सामाजिक संस्थामें कार्य न कर गृह-व्यवसायी रहे। परन्तु आश्चर्य है कि आपकी जिनवाणी साधना वहाँ भी सतत चलती रही और उसीका शुभ परिणाम है कि आपका वृद्ध जीवन अब भी जिनवाणीको पूर्णतः समर्पित है।
आपकी लौह लेखनी व्याकरणाचार्य होते हुए भी जैनदर्शनके गूढतम विषयोंपर चलती रही है, जिससे आगम स्याद्वाद सूर्य आव्योमित हुआ है तथा मिथ्या धारणाएँ नष्ट हुई है । आपका लिखित साहित्य आपको अमरता प्राप्त कराता रहेगा। पंडितजीकी रचनाओंको हृदयंगम कर मैं इस निष्कर्षपर पहँचा है।
श्री पंडितजी दीर्घजीवी होकर इस प्रकार स्वाध्यायिओंको मार्गदर्शन देते रहें । मैं उनके स्वस्थ एवं निराकूल जीवनके लिये वीरप्रभुसे प्रार्थना करता है।
समस्त समाजने पंडितजीका अभिनन्दन करनेका जो उपक्रम किया है वह उनकी जिनवाणी सेवाके अनुरूप है । मैं ग्रन्थके उत्तम प्रकाशनके लिये समितिको धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। जैन आगमके उच्चकोटिके विद्वान् .५० प्रकाश हितैषी, सम्पादक-सन्मति सन्देश, दिल्ली
आदरणीय व्याकरणाचार्य पं. बंशीधरजी शास्त्रीको मैं ६० वर्षसे जानता हूँ क्योंकि आपके निवास स्थल बीना (इटावा) में मैंने प्रारम्भिक धार्मिक शिक्षा प्राप्त की थी। उस समय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य और पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री भारतके स्वतन्त्रता संग्राममें प्रमुख सेनानी माने जाते थे । फलस्वरूप उन्होंने जेल यात्रायें भी की है। उस समय उनकी निर्भीकता एवं देशकी स्वतन्त्रताके प्रति समर्पण उल्लेखनीय रहा है। उन दिनों इन दोनों विद्वानोंकी राम-लक्ष्मण जैसी जोड़ी लोग कहा करते थे।
समाज सुधारमें भी ये अग्रगण्य थे। मरणभोज एवं अन्य सामाजिक बुराइयोंका भी खुलकर विरोध करते थे। अनावश्यक होनेवाले गजरथ-पंचकल्याणकोंका भी इन्होंने खूब विरोध किया था। वे कहा करते थे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठाके लिए ये प्रतिष्ठाएँ धनका अपव्यय है। इनका विरोध करनेके लिए इन्होंने एक समितिका भी निर्माण किया था। आप समाज सेवामें विश्वास करते थे, लोकेषणासे सदा दूर रहते थे।
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