Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति का पर्यवेक्षण
ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति की संकलन शैली का वैचित्र्य :--
चिर अतीत में ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति का संकलन किस रूप में रहा होगा? यह तो आगम-साहित्य के इतिहास-विशेषज्ञों का विषय है किन्तु वर्तमान में उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में दी गई विषय निर्देशक समान गाथाओं में प्रथम प्राभूत का प्रमुख विषय “सूर्य मण्डलों में सूर्य की गति का गणित" सूचित किया गया है, किन्तु दोनों उपांगों का प्रथम सूत्र मूहूर्तों की हानि-वृद्धि का है।
सूर्य सम्बन्धी गणित और चन्द्र सम्बन्धी गणित के सभी सूत्र यत्र-तत्र विकीर्ण हैं । ग्रह-नक्षत्र और ताराओं के सूत्रों का भी व्यवस्थित क्रम नहीं है। अतः आगमों के विशेषज्ञ सम्पादक, श्रमण या सद्गृहस्थ इन उपांगों को आधुनिक सम्पादन शैली से सम्पादित करें तो गणित ज्ञान की आशातीत वृद्धि हो सकती है।
प्रथम प्राभूत के पांचवें प्राभृत-प्राभृत में दो सूत्र हैं। सोलहवें सूत्र में सूर्य की गति के सम्बन्ध में अन्य मान्यताओं की पाँच प्रतिपत्तियाँ हैं और सत्रहवें सूत्र में स्वमान्यता का प्ररूपण है।
इस प्रकार अन्य मान्यताओं का और स्वमान्यता का दो विभिन्न सूत्रों में निरूपण अन्यत्र नहीं है। संकलन काल की दुविधा :
गणधर अंग आगमों को सूत्रागमों के रूप में पहले संकलित करता है और श्रतधर स्थविर उपांगों को बाद में संकलित करते हैं। संकलन का यह कालक्रम निर्विवाद है।
अंग आगमों को संकलित करने वाला गणधर एक होता है और उपांग आगमों को संकलित करने वाले श्रुतधर विभिन्न काल में विभिन्न होते हैं अतः उनकी धारणाये तथा संकलन पद्धति समान होना संभव नहीं है।
स्थानांग अंग आगम है। इसके दो सूत्रों में चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति के नामों का निर्देश दुविधाजनक है क्योंकि स्थानांग के पूर्व चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति का संकलन होने पर ही उनका उसमे निर्देश संभव हो सकता है।
इस विपरीत धारणा के निवारण के लिए बहुश्रुतों को समाधान प्रस्तुत करना चाहिए किन्तु समाधान प्रस्तुत करने से पूर्व उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह संक्षिप्त वाचना की सूचना नहीं है--ये दोनों अलग-अलग सूत्र हैं । नक्षत्र गणनाक्रम में परस्पर विरोध है ?
चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति के दशम-प्राभत के प्रथम प्राभृत-प्राभृत में नक्षत्र गणनाक्रम की स्वमान्यता का प्ररूपण है--तदनुसार अभिजित् से उत्तराषाढ़ा पर्यन्त २८ नक्षत्रों का गणना क्रम है किन्तु स्थानांग अ.२, उ. ३, सूत्रांक ९५ मे तीन गाथाएँ नक्षत्र गणना क्रम की हैं और यही तीन गाथाएँ अनुयोग द्वार के उपक्रम विभाग में सत्र १८५ में हैं।
१. क-स्थानांग अ. ३, उ. २, सू. १६० ।
ख-स्थानांग अ. ४, उ. १, सू. २७७ ।
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