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अङ्ग आगमों के विषयवस्तु-सम्बन्धी उल्लेखों का तुलनात्मक विवेचन - उपोद्घातादि से यह अपेक्षाकृत परवर्ती रचना सिद्ध होती है। श्रावकधर्म का प्रतिपादक यह प्राचीनतम ग्रन्थ रहा है ऐसा उभय परम्परानुमत है ।
८-अन्तकृद्दशा (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में
१. स्थानाङ्ग में'-इसमें १० अध्ययन हैं-नमि, मातंग, सोमिल, रामगुप्त, सुदर्शन, जमाली, भगाली, किंकष चिल्वक (चिल्लक ), पाल और अंबडपुत्र ।
२. समवायाङ्ग में --- इसमें कर्मों का अन्त करने वाले अन्तकृतों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धिविशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतपरिग्रह, तप-उपधान, बहुत प्रकार की प्रतिमायें, क्षमा, आर्जव, मार्दव, सत्य, शौच, सत्रह प्रकार का संयम, ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य, तप, त्याग समितियों तथा गुप्तियों का वर्णन है। अप्रमादयोग, स्वाध्याय और ध्यान का स्वरूप, उत्तम संयम को प्राप्त करके परीषहों को सहन करने वालों को चार घातियाँ कर्मों के क्षय से प्राप्त केवल ज्ञान, कितने काल तक श्रमण पर्याय और केवलि पर्याय का पालन किया, किन मुनियों ने पादोपगमसंन्यास लिया और कितने भक्तों का छेदनकर अन्तकृत मुनिवर अज्ञानान्धकार से विप्रमुक्त हो अनुत्तर मोक्षसुख को प्राप्त हुए, उन सबका विस्तार से वर्णन है।
___ अङ्गों के क्रम में यह आठवाँ अङ्ग है। इसमें १ श्रुतस्कन्ध, १० अध्ययन, ७ वर्ग, १० उद्देशनकाल, १० समुद्देशनकाल और संख्यात हजार पद हैं।
शेष वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है।
३. नन्दीसूत्र मे- इसमें अन्तकृतों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक-परलोक ऋद्धिविशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, पर्याय (दीक्षा पर्याय ), श्रुतपरिग्रह, तपोपधान, सल्लेखना, भक्त प्रत्याख्यान, पादपोपगमन और अन्तक्रिया ( शैलेशीअवस्था) का वर्णन है। इस आठवें अङ्ग में एक श्रुतस्कन्ध, ८ वर्ग, ८ उद्देशनकाल और ८ समुद्देशनकाल हैं । शेष वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है ।
४. विधिमार्गप्रपा में -इस आठवें अङ्ग में १ श्रुत स्कन्ध तथा ८ वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग में क्रमशः १०,८,१३,१०,१०,१६,१३ और १० अध्ययन हैं। (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में
१. तत्त्वार्थवात्तिक में'-जिन्होंने संसार का अन्त कर दिया है उन्हें अन्तकृत कहते हैं। १. स्थानाङ्गसूत्र १०.११३ । २. समवायाङ्गसूत्र ५३९-५४२ । ३. नन्दीसूत्र ५३ । ४. विधिमार्गप्रपा, पृ० ५६ । ५. तत्त्वार्थ० १.२० पृ० ७३ ।
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