Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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उग्रादित्याचार्य का रसायन के क्षेत्र में योगदान
१८९ सबसे महत्त्वपूर्ण तो यही है कि इसमें अनेक उपयोगी पदार्थों व औषधों के गुणों का निरीक्षण और परीक्षण दिया गया है। औषधों को भी समुचित मात्रा में लेने का उल्लेख है। इस दृष्टि से इसके धान्यादि-गुणागुण विचार (परिच्छेद ४), द्रव-द्रव्याधिकार (परिच्छेद ५), रसायनाधिकार (परिच्छेद ६), विषरोगाधिकार (परिच्छेद १९) एवं रस रसायनाधिकार (परिच्छेद २४) नामक पाँच अध्याय महत्त्वपूर्ण हैं। इसके वर्णनानुसार यह स्पष्ट होता है कि उग्रादित्य के युग में विभिन्न वनस्पतियों, प्राकृतिक खनिजों व पदार्थों के साथ-साथ रसशाला में निर्मित पदार्थों का अध्ययन किया जाने लगा था।
इस ग्रन्थ की तीन विशेतायें महत्त्वपूर्ण हैं :
(i) इसमें केवल ऐसी औषधों/कल्पों का वर्णन है जो वनस्पति या खनिज जगत या उसके संसाधन से प्राप्त हो सकती हैं।
(ii) ग्रन्थ के अन्तिम हिताहिताध्याय में जैनमत के अनुसार मद्य, मांस और मधु का उपयोग अनुचित बताया गया है। इसमें इसके समर्थक पूर्वाचार्यों के मतों का खण्डन भी किया गया है। इन तीनों का त्याग आज भी जैनों के आठ मूलगुणों' में माना जाता है। इसीलिए आचार्य ने इन्हें अपने औषधों के निर्माण/अनुपान में प्रयुक्त नहीं किया है और इनकी अभक्ष्यता पर पर्याप्त तर्कसंगत विवेचन किया है। इनसे पूर्व के अन्य जैन आयुर्वेदज्ञों की भी यही परम्परा रही है। मद्य एवं मांसाहार के विरुद्ध तो इस युग में भी काफी वैज्ञानिक तथ्य ज्ञात हुए हैं और अनेक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के माध्यम से अब इनका प्रचलन कम होने के आसार दिखने लगे हैं।
___ (iii) इसका आयुर्वेदिक विवरण भी जैनेतर ग्रन्थों से भिन्न है, यद्यपि यह त्रिदोषों पर आधारित है। वर्णनक्रम भी भिन्न है। रसायनाधिकार पहले है और रस-रसायनाधिकार अन्त में है। रासायनिक विवरण : (अ) जल के गुण
जीवन में जल का महत्त्व स्पष्ट है, इसलिए उसके रसायन को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसे पंच भूतों में एक माना गया है। विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जल का विवरण निम्न है :
(i) कठोर, काली, पथरीली मिट्टी एवं तृणमय स्थान का जल खारा/खट्टा होता है। (ii) कोमल, सफेद, चिकनी मिट्टी एवं तृणमय स्थान का जल स्वच्छ मधुर होता है। (iii) कठोर, रुक्ष, भूरी मिट्टी एवं लूंठदार वृक्षों के स्थान का जल कटु होता है। (iv) वर्षा का जल अमृत के समान होता है । उबला जल औषध-गुणो होता है ।
हमें नीरस, निगंध, स्वच्छ एवं शीतल जल पीना चाहिये । भूतलस्थ जल में स्पर्शगत, रसगत एवं पाकगत दोष होते हैं, अतः उसे शुद्ध कर ही पीना चाहिये। उसके शुद्ध करने के लिए निम्न उपाय हैं :
१. पंडित, आशाधर; सागारधर्मामृत, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, बंबई १९४० पृ० ४०. २. कल्याणकारक, १८ पृ० ७१४. ३. वही, पृ० ६९.
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