Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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सूत्रकृतांग में वर्णित कुछ ऋषियों की पहचान करते हैं। इच्छा का दमन तभी सम्भव है जब हम तृष्णा से मुक्त हों। ऋषिभाषित में बाहुक को इच्छा से रहित होने का उपदेश देते हुए प्रस्तुत किया गया है।'
नारायण नमि, रामपुत्त एवं बाहुक के समान नारायण का भी उल्लेख एक अर्हत् ऋषि के रूप में सूत्रकृतांग में हुआ है। सूत्रकृतांग के समान ऋषिभाषित में भी उन्हें अत्यन्त सम्मान के साथ प्रस्तुत किया गया है ।२ ऋषिभाषित में नारायण की जो शिक्षाएँ संकलित हैं, वे मुख्यतः क्रोध के निरसन के सम्बन्ध में हैं। उपमाओं के माध्यम से क्रोध की भयावह प्रकृति को समझाने का प्रयास किया गया है। नागयण ऋषि के अनुसार अग्नि को शान्त किया जा सकता है, परन्तु क्रोध की अग्नि को शान्त करना असम्भव है। अग्नि तो केवल इसी जीवन को नष्ट करती है परन्तु क्रोध की अग्नि तो भविष्य के कई जन्मों को नष्ट कर देती है। अतः मोक्षाभिलाषी व्यक्ति को क्रोधाग्नि का निरसन करना चाहिए।
वैदिक साहित्य में नारायण का उल्लेख एक देव के रूप में हुआ है। महाभारत में एक नारायण ऋषि का उल्लेख मिलता है जिन्होंने बद्रिकाश्रम में चार हजार वर्षों तक तपस्या की थी। महाभारत के शान्ति पर्व में भी नारायण का उल्लेख मिलता है। यहाँ ऋषि नारायण को देवल ऋषि के साथ आध्यात्मिक चर्चा करते हुए प्रस्तुत किया गया है।४
बौद्ध साहित्य में नारायण ऋषि का मुझे कोई उल्लेख नहीं प्राप्त हुआ।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि नारायण ऋषि वैदिक परम्परा के प्रतिनिधि थे जिनकी तपस्या के कारण विशेष ख्याति थी।
असित देवल -सूत्रकृतांग में उल्लिखित ऋषि असित देवल अपने समय के विख्यात ऋषि प्रतीत होते हैं । इनका उल्लेख जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों परम्पराओं में विस्तार से प्राप्त होता है। सूत्रकृतांग में सिद्धि प्राप्त करने वाले ऋषियों में इनकी गणना की गई है, ऋषिभाषित भी इन्हें अर्हत् ऋषि कहकर विपुल सम्मान देता है।
ऋषिभाषित के तीसरे अध्याय में विस्तार से इनकी शिक्षाओं का वर्णन है।५ असित देवल को सभी प्रकार की इच्छाओं, भावनाओं एवं राग के निरसन की शिक्षा देते हुए प्रस्तुत किया गया है। ये क्रोध एवं इच्छा को जीतने का उपदेश देते हैं क्योंकि इनको जीतकर ही कोई व्यक्ति मोक्षपथ की ओर प्रयाण कर सकता है। नारायण ऋषि के समान इनके भी उपदेश का सार यह है कि सामान्य अग्नि को तो शान्त किया जा सकता है परन्तु राग की अग्नि को शान्त करना अत्यन्त ही दुष्कर है ।
१.
२.
अकामए कालगए, सिद्धि पत्ते अकामए
इसिभासियाई, पृ० २७ वही, अध्याय ३६ महाभारत, वनपर्व, ७३।३३९ वही, शान्तिपर्व, ३३।१३-१५ इसिभासियाई, तीसरा अध्याय
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