Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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ऋषिभाषित और पालिजातक में प्रत्येक-बुद्ध की अवधारणा जातक कथायें प्रत्येक-बुद्धों के धातु चैत्यों और उनकी पूजा के भी सन्दर्भ प्रदान करती हैं । धातु से तात्पर्य शरीर-धातु या अस्थियों से है। असद्द जातक' में इस प्रकार की चर्चा है कि नन्दमूल-पर्वत पर अपने आयु-संस्कार की समाप्ति को सन्निकट देख प्रत्येक-बुद्ध यह विचार करते हैं कि “बस्ती के राजोद्यान में परिनिर्वृत्त होने पर मनुष्य मेरी शरीरक्रिया कर, उत्सव मना, धातु-पूजा कर स्वर्ग-गामी होंगे, और निर्वाणरूपी नगर में प्रवेश को प्रकट करने वाला यह उदान कहकर कि "मैंने निःसंदेह जन्म का अन्त देख लिया, फिर मैं, गर्भ शैया में नहीं आऊँगा, यह मेरी अन्तिम गर्भ-शैया है, मेरा संसार पुनरुत्पत्ति के लिये क्षीण हो गया", वे राजोद्यान में एक पुष्पित शालवृक्ष के नीचे परिनिर्वाण को प्राप्त होते । सुमङ्गल जातक में माली के हाथ प्रत्येक-बुद्ध की आकस्मिक मृत्यु होने की स्थिति में उद्यान का स्वामी राजा उनका शरीर-कृत्य करते वर्णित है । उपर्युक्त दोनों जातकों से यह स्पष्ट होता है कि राजा परिनिर्वृत्त प्रत्येक बुद्ध के शरीर का सप्ताह भर पूजोत्सव मना, सब सुगन्धियों से युक्त चिता पर शरीर-क्रिया करके, शरीर-धातु पर चार महापथों पर धूप या चैत्य बनवाता है और चैत्य की पूजा करते हुए प्रत्येक-बुद्ध के बताये धर्मों का पालन करने तथा धर्मानुसार राज्य करने का व्रत लेता है । राजा के द्वारा ही शरीर-क्रिया एवं चैत्य निर्माण कराये जाने का यह औचित्य है कि प्रत्येक-बुद्ध राजा के “पुण्य क्षेत्र' माने जाते थे, उनके द्वारा उपदेशित धर्म का पालन राजा का धर्म होता था, और प्रत्येक-बुद्ध राजोद्यान में ही ठहरते थे । प्रत्येक-बुद्धों के जीते जी उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना तथा परिनिर्वृत्त होने पर उनकी धातु-पूजा करना राजा का आवश्यक धर्म था और ऐसा करके वे स्वर्ग-गामी होने की कामना करते थे। चैत्य आवागमन के सुविधाजनक स्थानों पर ही बनाये जाते थे।
पालि जातक साहित्य में प्रत्येक-बद्धों के संदर्भ में उपरोक्त प्रकार की ही सामग्री है। ऋषिभाषित और जातक में प्रत्येक-बुद्धों की अवधारणा के स्वतंत्र अध्ययन से जो अनुमान होता है, दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से वह भली-भाँति संपुष्ट होता है। मिल-जुलकर दोनों परम्पराओं के साक्ष्य यह भली-भाँति सिद्ध करते हैं कि प्रत्येक-बुद्धों की अवधारणा मूलतः न तो जैन परम्परा की है, न बौद्ध परम्परा की; बल्कि उन्हें स्वतंत्र कोटि में ही रखना चाहिये। जिस सीमा तक विशिष्ट-विशिष्ट नामधारी प्रत्येक-बुद्धों का ऐतिहासिक आधार स्वीकार किया जा सकता है, उन्हें सामान्य रूप से शील और मोक्ष मार्ग के उपदेशक मानना चाहिये, और यद्यपि उनमें विशिष्ट वैदिक ऋषियों के भी सम्मिलित होने की सम्भावना है, जैसा कि ऋषिभाषित की सामग्री से ध्वनित भी होता है, सामान्य रूप से उन्हें श्रमण परिव्राजक परम्परा का ही अंग स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि मोक्ष मार्ग का उपदेश और शुद्ध आचार-विचार को उसका आधार बनाना, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आदि को मोक्ष मार्ग का अभिन्न अंग मानना, गृहस्थ जीवन को दोषपूर्ण मानकर प्रव्रजन का उपदेश देना, ये सब उसी परम्परा की विशेषतायें हैं। यह सर्वस्वीकृत तथ्य है कि वैदिक यज्ञ परम्परा की ही भाँति श्रमण परिव्राजक परम्परा का भी दीर्घकालीन इतिहास है। प्राचीन वैदिक साहित्य में इस विषय के
१. जातक ४१८-, खण्ड ४- पृ० ९२-९३ । २. जातक ४२०, खन्ड ४- पृ० १०० ।
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