________________
ऋषिभाषित और पालि जातक में प्रत्येक-बुद्ध की अवधारणा
____ डॉ० दशरथ गोंड जैनाचार्यों ने, विशेषकर श्वेताम्बराचार्यों ने बौद्धों की ही भाँति प्रत्येक बुद्धों की कल्पना की है और दोनों परम्पराओं में प्रत्येक-बुद्ध उन आत्मनिष्ठ साधकों की संज्ञा है जो गृहस्थ होते हुए किसी एक निमित्त से वोधि प्राप्त कर लें, अपने आप प्रवजित हों और बिना उपदेश किये शरीरान्त कर मोक्ष लाभ करें।' यद्यपि दोनों ही परम्पराओं में प्रत्येक-बुद्धों के यत्र-तत्र अनेक सन्दर्भ हैं, पर जैन परम्परा में उनका विशेष उल्लेख ऋषिभाषित एवं उत्तराध्ययन में प्राप्त होता है। बौद्ध साहित्य में तो प्रत्येक-बुद्धों के अनेक सन्दर्भ हैं, परन्तु प्राचीन पालि साहित्य में उनके विषय में सूचना का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत जातक साहित्य है। यह तथ्य अपने आप में रोचक और महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जहाँ ऋषिभाषित में प्राचीन ऋषियों के रूप में प्रत्येक-बुद्धों का उल्लेख है और परम्परानुसार उन्हें अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ तथा महावीर के शासनकाल का कहा गया है, वहीं पर जातकों में भी प्रत्येक-बुद्धों का सन्दर्भ गौतम बुद्ध के पूर्व जीवन की कथाओं से जोड़ा गया है । प्रस्तुत लेख का उद्देश्य बौद्ध और जैन परम्परा के इन दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में प्रत्येक-बुद्ध की अवधारणा का तुलनात्मक अध्ययन है। ऋषिभाषित (इसिभासियाई)
जैन साहित्य में ऋषिभाषित का सन्दर्भ तो बहुत पहले से ज्ञात था, परन्तु पहली बार यह ग्रन्थ १९२७ में प्रकाश में आया। सम्प्रति "इसिभासियाइं" शीर्षक से इसका प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ० वाल्थेर शुबिग द्वारा सम्पादित संस्करण उपलब्ध है और हाल ही में डॉ० सागरमल जैन महोदय ने इसका एक सारभित अध्ययन भी प्रकाशित किया है। यह रोचक है कि जहाँ श्वेताम्बर जैन आगम ग्रन्थों में ऋषिभाषित के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, वहीं प्रकीर्णक ग्रन्थों में १. देखिए मलालशेखर : डिक्शनरी ऑफ पालि प्रापर नेम्स, खण्ड २, पृष्ठ ९४, सन्दर्भ
"पच्वेकबुद्ध"; पुग्गल पञ्जति (पी०टी०एस० संस्करण ) पृष्ठ १४; वर्णी, जिनेन्द्र : जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, सन्दर्भ "बुद्ध"; जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, खण्ड ६, पृष्ठ १६० । पत्तेयवृद्धमिसिणो बीसं तिन्थे अरिटठणेमिस्म । पासस्स य पण्ण दस वीरस्स विलीणमोहस्त ।।
----इसिभासियाई; जैन, सागरमल : ऋषिभाषित एक अध्ययन, पृष्ठ ११ भी द्रष्टव्य । शबिग, वाल्थेर (सम्पादक ) : इसिभासियाई ( एल०डी० सिरीज ४५ ), एल०डी० इस्टिटिट्यूट ऑफ इण्डोलाजी, अहमदाबाद, १९७४. यह ग्रन्थ लेखक के मूल जर्मन
का भारतीय संस्करण है। ४. जैन, सागरमल : ऋषिभाषित एक अध्ययन ( प्राकृत भारती पुष्प ४९) प्राकृत भारती
अकादमी, जयपुर १९८८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org