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सूत्रकृतांग में वर्णित कुछ ऋषियों की पहचान तीनों परंपराओं के साक्ष्यों को देखने से स्पष्ट होता है कि असित देवल एक महान् धर्मपरायण ऋषि थे। ये वैदिक परंपरा से सम्बन्धित किये जा सकते हैं क्योंकि सूत्रकृतांगकार इन्हें जैन परंपरा से भिन्न एक ऐसे ऋषि के रूप में प्रस्तुत करता है जिसने सचित्त जल आदि का सेवन करते हुए मोक्ष प्राप्त किया था। महाभारतकार भी असित देवल को गहस्थ धर्म का पालन करने वाला महान् ऋषि बताता है। समत्वभाव संबन्धी इनके उपदेश भी दोनों परंपराओं में समान रूप से वर्णित हैं। इसके अतिरिक्त असित देवल का नारद के साथ संबन्ध वैदिक एवं बौद्ध दोनों परंपराओं में प्रायः समान है। तीनों परंपराओं में इनके विचारों की समानता इनकी ऐतिहासिक उपस्थिति को पुष्ट करती है।
द्वपायण-जैन परंपरा में सूत्रकृतांग के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों में भी द्वैपायण का उल्लेख मिलता है। ऋषिभाषित का ४० वाँ अध्याय द्वैपायण से संबन्धित है। इसके अतिरिक्त समवायांग,' औपपातिक एवं अन्तकृद्दशा में भी द्वैपायण की चर्चा है। समवायांग में द्वैपायण का उल्लेख भविष्य के तीर्थंकरों में है। औपपातिक में इनका उल्लेख परिव्राजक परंपरा के संस्थापक के रूप में हुआ है तो अन्तकृदशा में द्वारका नगर के विध्वंसक के रूप में। ऋषिभाषित में द्वैपायण को इच्छा-निरोध का उपदेश देते हुए प्रस्तुत किया गया है। इच्छा के कारण ही मनुष्य दुःखी होता है। इच्छा ही जीवन और मृत्यु का कारण है तथा सभी बुराइयों की जड़ है। इच्छा रहित होना ही मोक्ष-पथ की ओर प्रथम कदम हैयह द्वैपायण की शिक्षा का मूल सार है।
जैन परंपरा के समान वैदिक परंपरा में भी पायण एक अत्यन्त प्रसिद्ध ऋषि के रूप में वर्णित हैं। महाभारत के आदि पर्व में इन्हें महर्षि पराशर का सत्यवती से उत्पन्न पुत्र कहा गया है।५ द्वैपायण जिनका पूरा नाम कृष्ण द्वैपायण है, महाभारत के रचयिता कहे गये हैं। इसीलिये इन्हें सत्यवतीनन्दन व्यास भी कहा गया है।६ महाभारत में मोक्षधर्म पर इनका विस्तृत उपदेश प्राप्त होता है। शान्तिपर्व में इनको काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय और स्वप्न को जीतने वाला कहा गया है।"
बौद्ध साहित्य भी ऋषि द्वैपायण से परिचित है। इनके नाम के समरूप एक कण्ह दीपायण जातक प्राप्त होता है परन्तु इस जातक का कथानक द्वैपायण सम्बन्धी जैन एवं वैदिक कथानक से भिन्न है। एक अन्य जातक में ऋषि द्वैपायण द्वारा द्वारका नगरी के नाश का उल्लेख है जिसके अनुसार द्वारका नगरी के विनाश के साथ ही वासुदेव वंश का भी नाश हो
समवायांग, सूत्र १५९ औपपातिक; सूत्र ३८ अन्तकृद्दशा, वर्ग २ इसिभासियाई, ४०/१-४ "पराशरात्मजो विद्वान् ब्रह्मषि" महाभारत, आदिपर्व, ११५५ वही, आदिपर्व, ११५४ वही, शान्तिपर्व, २४०।४-५
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