Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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उग्रादित्याचार्य का रसायन के क्षेत्र में योगदान
१८७ अनेक विद्वानों के एतत् संबंधी अनुशीलनों से लगता है कि मूलतः किसी प्रसिद्ध नागार्जुन की उपाधि अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने ग्रहण की, जिससे उनकी प्रामाणिकता पुष्ट हो। प्रो० रे और सत्यप्रकाश के मत के विपरीत विद्यालंकार' का मत है कि इसी युग में काश्यपसंहिता और अष्टांगहृदय लिखे गये।
पूर्वोक्त प्राचीन साहित्य के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि उस युग में भारत में पारद, लवण, गंधक एवं उसके अनेक यौगिक प्रयोग में आते थे और उनका रसायनशास्त्र भी विकसित हो चुका था। पारद से सोना बनाने की विधियों का भी पर्याप्त उल्लेख इस साहित्य में मिलता है। यद्यपि पारद एवं उसके यौगिकों का चिकित्सीय कार्यों में प्रयोग होने की बात देखने में नहीं आई, यद्यपि कुछ स्थलों पर इनके बाह्य-प्रयोगों का उल्लेख अवश्य मिलता है।
___ अनेक विद्वानों के आलोडनों से प्रतीत होता है कि पारद और गंधक को विभिन्न रूपों एवं योगों को चिकित्सा के क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने का श्रेय बौद्ध सिद्धों एवं नाथ सम्प्रदाय, को दिया जाना चाहिये । यहाँ भी नागार्जुन का नाम परेशानी में डालता है। इसका कारण यह है कि ये दोनों ही सम्प्रदाय लगभग नवीं शताब्दी के प्रारंभ में प्रतिष्ठित हुए हैं। इनमें नागार्जुन को कहीं छठवाँ तो कहीं सोलहवाँ सिद्ध बताया गया है। ये पारसनाथी शाखा के रसेश्वर सिद्ध माने गये हैं। यदि उन्हें रस चिकित्सा का मूल बिन्दु माना जाव, तो इनके इस समय के आधार पर अनेक विवरण संशोधनीय हा जावेंगे। फलतः यह मानना अधिक तर्कसंगत होगा कि उक्त सम्प्रदायों ने इनकी रससंबंधी प्रतिष्ठा को देखकर इन्हें अपने महापुरुषों में से एक सिद्ध मान लिया हो। इन्हें सातवीं सदी का मानकर ही भारताय रसायन के इतिहास में संगतता आ सकेगी। रसायनज्ञ नागार्जुन के समय रस, सूत या पारद और उसके यौगिकों का आयुष्मानी औषध के रूप में पर्याप्त उपयोग होने लगा था और उसने पारद-शोधन और उसके यौगिकों के बनाने में काम आनेवाला अनेक प्रक्रियाओं का विकास किया था। ये दक्षिण के रहने वाले थे, आंध्र प्रदेश में इनके नाम पर एक विश्वविद्यालय स्थापित किया गया है। उत्तरवर्ती रस-शास्त्रज्ञों ने भी इनका अनुसरण कर नये-नये यौगिक बनाये एवं रस चिकित्सा को बढ़ाया। डा० गुण के अनुसार, जैनाचार्यों ने भो रसशास्त्र, निर्घटु एवं औषध-विज्ञान पर बहुत काम किया है। नागार्जुन से लगभग १५० वर्ष बाद ही वर्तमान उड़ीसा के त्रिकलिंग क्षेत्र में उनादित्य नामक जैनाचार्य हुए हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों के ग्रन्थों का सांगोपांग अध्ययन किया और अपने अध्ययन तथा अनुभवों को कल्याणकारक नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। यद्यपि यह मुख्यतः आयुर्वदिक ग्रन्थ है, फिर भो इसमें नवीं सदी के ज्ञान-विज्ञान का अच्छा विवरण मिलता है। यही नहीं, इस ग्रन्थ को कुछ विशेषतायें हैं। यह पूर्वी भारत में आयुर्वेद पर लिखा गया अपने युग का प्रथम ग्रन्थ है। इसके पूर्व के आयुर्वेद ग्रन्थ अधिकांश दक्षिण (मुख्यतः जैन ग्रन्थ) और उत्तरो सोमान्त के आचार्यों के हैं। फलतः इस ग्रन्थ से यह पता चलता है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों में ज्ञान के
१. विद्यालंकार, पूर्वोक्त, पृ० २१७. २. वही, पृ. ३४५-४२१. ३. शाह, ए. पी०; जैन साहित्य का बृहत् इतिहास-५, पा० विद्याश्रम, काशी, १९६९,
पृ० २२६.
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