Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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प्रो० भागचन्द्र जैन
विवाद का कारण रहा है। धर्मकीर्ति आदि बौद्धाचार्यों ने समवाय को निम्न कारणों से अस्वीकार किया है
१. वह अतीन्द्रिय है, प्रत्यक्षग्राह्य नहीं। अवयव विषयक प्रतीति वासना वश होती है,
वस्तुकृत नहीं। २. प्रतीति के मूल में आधाराधेयभाव या तन्मूलक समवाय न होकर कार्यकारण
भाव है। ३. द्रव्य और गुण का भी भेद नहीं है। इसलिए 'घटे रूपम्' इस प्रतीति के बल पर भी
समवाय सिद्ध नहीं होता। समवाय के अभाव में भी यह प्रतीति बनी रहती है। ४. समवाय यदि स्वतन्त्र पदार्थ है तो उसका सम्बन्ध दूसरे द्रव्य से कैसे हो पायेगा?
एक और समवाय मानने पर अनवस्था दोष होगा। ५. मीमांसकों का रूपरूपित्व भी लगभग ऐसा ही है । ६. सांख्यों ने भी समवाय का खण्डन किया है।
जैन दार्शनिक भेदाभेदवादी हैं । वे नैयायिकों के समवाय के खण्डन में बौद्धाचार्यों का ही अनु. करण करते हैं। उनके मत से समवाय द्रव्य का एक पर्याय मात्र है।'
जैन-बौद्धों ने सन्निकर्ष को समान आधार पर प्रमाण नहीं माना । बौद्धों ने तो श्रोत्र को भो अप्राप्यकारी माना है। कुमारिल ने इन्द्रियों के व्यापार को सन्निकर्ष कहकर सन्निकर्ष का अर्थ ही बदल दिया। यहां संप्रयोग का अर्थ है-ऋजु देश स्थिति और इन्द्रिय की योग्यता । जैनों ने इसी को स्वीकार किया है पर योग्यता का अर्थ दूसरा कर दिया। उनके अनुसार योग्यता का अर्थ हैज्ञानावरण के दूर होने से उत्पन्न शक्ति विशेष । यही ज्ञान का कारण है।
प्रमाण के संदर्भ में बौद्धदर्शन द्वारा मान्य निर्विकल्पक ज्ञान की भी चर्चा करना आवश्यक है । वस्तु का स्वलक्षण और सामान्य लक्षण के अनुसार प्रमाण के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और अनुमान । कल्पना से रहित निर्धान्त ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं और अभिलाष अर्थात् शब्द विशिष्ट प्रतीति को कल्पना कहते हैं। प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है और वह क्षणिक है इसलिए प्रत्यक्ष में शब्दसंसृष्ट अर्थ का ग्रहण संभव नहीं है । नाम देते-देते वह विलीन हो जाता है। तब हम उसे सविकल्पक कैसे कह सकते हैं ? और फिर अर्थ में शब्दों का रहना संभव नहीं है और न अर्थ और शब्द का तादात्म्य संबन्ध ही है । ऐसी दशा में अर्थ से उत्पन्न होने वाले ज्ञान में ज्ञान को उत्पन्न न करने वाले शब्द के आकार का संसर्ग कैसे रह सकता है ? क्योंकि जो जिसका जनक नहीं होता, वह उसके आकार को धारण नहीं करता। जैसे रस से उत्पन्न होने वाला रसज्ञान अपने अजनक रूप आदि के आकार को धारण नहीं करता और इन्द्रिय ज्ञान केवल नील आदि अर्थ से ही उत्पन्न होता है, शब्द से उत्पन्न नहीं होता। तब वह शब्द के आकार को धारण नहीं कर सकता और जब शब्द के आकार को वह धारण नहीं कर सकता, तब वह शब्दग्राही कैसे हो सकता है क्योंकि बौद्धमत के अनुसार जो ज्ञान जिसके आकार नहीं होता वह उसका ग्राहक नहीं होता (अतः जो ज्ञान अर्थ से संसृष्ट शब्द को
१. तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृ० २० । २ न्यायकुमुदवन्द्र, पृ० ३१ ।
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