Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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प्रो० भागचन्द्र जैन
और परमत्थसच्च को विशेष रूप से उन्होंने साध्य माना था ।' परमत्थसच्च ही तथलक्खण है । बाद में बुद्ध ने विभज्जवाद के स्थान पर मध्यममार्ग को अपनाया - सब्बं अस्थीति खो ब्राह्मण अयं एको अन्तोसब्बं नत्थीति खो ब्राह्मण, अयं दुतियो अन्तो । एते ते ब्राह्मण उभो अन्ते अनुपगम्य मज्झेन तथागतो धम्मं देसेति अविज्जापच्चया संखारा | उत्तरकाल में यही मध्यममार्ग भगवान् बुद्ध का पर्यायवाचक बन गया ।
विभज्जवाद के समान ही अनेकान्तवाद का उद्देश्य रहा है। जैसा हम पहले देख चुके हैं, अनेकान्तवाद में पदार्थ के स्वरूप पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया जाता है । इसी संदर्भ में एकान्तिक और अनेकान्तिक तथा एकंस और अनेकंस शब्दों का प्रयोग हुआ है इसके प्राचीन रूप को हम बौद्ध साहित्य में खोज सकते हैं ।
पार्श्वनाथ परम्परा के अनुयायी सच्चक से बुद्ध ने कहा कि तुम्हारे पूर्व और उत्तर के कथन में परस्पर व्याघात हो रहा है-न खो संधियति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन वा पुरिमं । बुद्ध के शिष्य चित्तगहपति और निगण्ठनातपुत्त के बीच हुए विवाद में भी चित्तगहपति ने निगण्ठनातपुत्त पर यही दोषारोपण किया - सचे पुरिमं सच्चं परिच्छमेन ते मिच्छा, सचे पच्छिमं सच्चं पुरिमेन ते मिच्छा ।
इससे यह पता चलता है कि भगवान् महावीर ने भी भगवान् बुद्ध के समान मूलतः दो भंगों से विचार किया था - अत्थि और नत्थि । इन्हीं भंगों में स्वात्मविरोध का दोषारोपण लगाया गया । महात्मा बुद्ध के भंगों में भी परस्पर विरोध झलक रहा है पर बुद्ध द्वारा महावीर पर लगाये गये आरोप में जो तीव्रता दिखाई देती है वह वहाँ नहीं । इसका कारण यह हो सकता है कि महावीर के विचारों में अनेकान्तिक निश्चिति थी और बुद्ध एकान्तिक निश्चिति के साथ अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते थे । 'निश्चय' के साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग यहाँ अवश्य नहीं मिलता पर उसका प्रयोग उस समय महावीर अवश्य किया करते रहे होंगे । जैसा उत्तरकाल में प्रायः देखा जाता है, प्रतिपक्षी दार्शनिक स्यात् में निहित तथ्य की उपेक्षा करते रहे हैं । प्रसिद्ध बौद्धाचार्य बुद्धघोष ने स्वयं अनेकान्तवाद को शाश्वतवाद और उच्छेदवाद का संमिश्रित रूप कहा है ।
जो भी हो, इतना निश्चित था, बुद्ध के समान महावोर ने भी अस्थि-नत्थि रूप में दो भागों को ही मूलतः स्वीकार किया था । भगवतोसूत्र में भी इन्हीं दो भंगों पर विचार किया गया है । गौतम गणधर ने उन्हीं का अवलम्बन लेकर तीर्थिकों के प्रश्नों का उत्तर दिया था -नो खलु वयं देवापिया, अत्थि भावं नत्थित्ति वदामो, नत्थि भावं अस्थिति बदामो । अम्हे णं देवाणुप्पिया ! सब् अस्थिभावं अत्योति बदामो, सब्बं नत्थिभावं नत्थीति बदामो । ७
१. सुत्तनिपात, ६८.२१९; कथावत्थु अट्टकथा ३४
२. अंगुत्तर, अट्ठकथा, १, पृ. ९५ ( रो.)
३. संयुत्तनिकाय
४. मज्झिम १. २३२
५. संयुत्तनिकाय, भाग ४, पृ. २९८-९ ।
६. मज्झिमनिकाय, अट्ठकथा, भाग २, पृ ८३१; दीघनिकाय अट्टकथा, भाग ३, पृ. ९०६ ।
७. भगवतीसूत्र, ७.१०.३०४. चूलराहुलोवाद सुत्त (मज्झिमनिकाय) में 'सिया' शब्द का प्रयोग तेजोधातु के निश्चित भेदों के अर्थ में किया गया है ।
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