Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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नाट्यदर्पण पर अभिनवभारती का प्रभाव
१२१ विषय
नाट्यदर्पण अभिनवभारती ३४. वीथी
पृ० ११७ ना० शा० पृ० ४५९ ३५. व्याहार ३६. त्रिगत
" ४५८ ३७. असत्प्रलाप ३८. वाक्केली
, ४५६ ३९. नालिका
, ४५५ ४०. उद्घात्यक ४१. अवस्पन्दित
,, ४५५ ४२. आमुख
भाग-३ पृ० ९३ ४३. आरभटी वृत्ति में विचित्र नेपथ्य एवं माया-शिर-दर्शन।
, १४० पृ० १०४ ४४. आरभटी वृत्ति में विचित्र भाव कार्यान्तर ।
॥१४१
, १०४ ४५. आक्षेपिकी ध्रुवा
,, १७३ , भाग-४ पृ० ३६० उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि अभिनवभारती में प्रदर्शित उदाहरणों की विपुल सङ्ख्या का नाट्यदर्पण में उदारतापूर्वक प्रयोग किया गया है। अतः इस दृष्टि से भी रामचन्द्र गुणचन्द्र अभिनवगुप्त के ऋणी हैं।
___ तथ्यों के तार्किक विवेचन की दृष्टि से नाट्यदर्पण में यत्र-तत्र विविध शब्दों की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। इस क्षेत्र में भी उस पर अभिनवभारती का स्पष्ट भाव परिलक्षित होता है। नाट्यदर्पण में अनेक ऐसी निरुक्तियाँ हैं, जिनका अभिनवभारती से पूर्ण साम्य है। दोनों ग्रन्थों में समान रूप में निर्दिष्ट ऐसे स्थल निम्नलिखित हैंनाट्यदर्पण
अभिनवभारती १. नाटकमिति नाटयति विचित्रं रञ्जनाप्रवेशेन "तथा हृदयानुप्रवेशरञ्जनोल्लासनया हृदयं
सभ्यानां हृदयं नर्तयतीति नाटकम् । विवृत्ति शरीरं चोपायव्युत्पत्तिपरिघट्टितया चेष्टया नर्तयति पृ० २५
""नाटकमिति । ना० शा० भाग-२ पृ० ४१३ २. स प्रसिद्धि प्राशस्त्य हेतुत्वात् पताकेव 'प्रसिद्धिप्राशस्त्ये सम्पादयति । पताकावदुपयोपताका । पूर्वोक्त पृ० ३९
गित्वादियं पताकेति चिरन्तनाः । पूर्वोक्त भाग-३
पृ० १५ ३. अर्थः कर्म-करणव्युत्पत्त्या प्रयोजनमुपायश्च । ""अर्थः प्रयोजनमुपायश्च, कर्म-करणव्युत्पत्त्या । पूर्वोक्त पृ० ३९
पूर्वोक्त पृ० १८-१९ ४. "प्रकर्षेण स्वार्थानपेक्षया करोतीति प्रकरी। प्रकर्षण स्वार्थानपेक्षया करोतीति । ना० शा० विवृत्ति पृ० ४१ ।
भाग-३ पृ० १५। ५. स मुखस्याभिमुख्येन वर्तत इति प्रतिमुखम् । प्रतिमुखं प्रतिराभिमुख्येन यतोऽत्र वृत्तिः । पूर्वोक्त पूर्वोक्त पृ० ४८।
पृ० २५ ।
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