Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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षट्त्रिंशिका या षट्त्रिंशतिका : एक अध्ययन २. "K" यह प्रति भी Government Oriental Manuscript Lib., Madras में ही है। इममें भी ५ अध्याय हैं, साथ में कन्नड़ भाषा में टिप्पणियां दी गयी हैं ।
३. "M" यह प्रति Government Oriental Manuscript Library, Mysore में है। इसे एक जैन पंडित की ताडपत्रीय प्रति की प्रतिलिपि कराकर तैयार किया गया था। यह प्रति पूर्ण है तथा इसके साथ वल्लभ कृत कन्नड़ की संक्षिप्त टीका भी है।
४. "K" यह प्रति भी Government Oriental Manuscript Lib., Madras में ही है, इसमें मात्र ७ वां अध्याय है, साथ में कन्नड़ व्याख्या है। ज्यामितीय रचनाओं को चित्रों द्वारा समझाया गया है।
५. "B" यह प्रति जैन मठ-मूडबिद्री (दक्षिण कनारा) में है एवं पूर्ण है। इसमें कन्नड़ भाषा के प्रश्नों के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया गया है।
डा० हीरालाल जैन ने कारंजा (अकोला) भण्डार में उपलब्ध गणितसारसंग्रह की कतिपय (७) प्रतियों की सूचना गणितसारसंग्रह के हिन्दी संस्करण के परिशिष्ट में दी है।' अं० नं०६०, ६१,६२ एवं ६६ की प्रतियों के पत्रों की संख्या क्रमशः २० ८. १९ एवं १५ है फलतः वे विशेष महत्त्व की नहीं है क्योंकि उनमें बहत थोडा अंश है। हमारे विचार से प्रति "P" एवं "K" (५ अध्याय वाली) षट्त्रिंशिका के अध्ययन की दृष्टि से मूल्यवान हो सकती है। हमारे एक मित्र ने सूचित किया है कि कारंजा भंडार के वर्तमान सूची पत्र के अनुसार उसके क्रमांक ७०१, ७०५, ७०६ पर षट्त्रिंशिका की प्रतियाँ सुरक्षित हैं । ये ग्रन्थ बस्ता क्रमांक १३१ में उपलब्ध है।
उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि
(१) षटत्रिंशिका, षट्त्रिंशतिका एवं छत्तीसी गणित ये तीनों एक ही ग्रन्थ है । कारंजा भंडार की प्रतियों एवं (छत्तीसी गणित एवं षट्त्रिंशतिका) के उपलब्ध विवरण एवं जयपुर की षट्त्रिंशिका प्रति की तुलना करने से इनकी सामग्री में पूर्णतः साम्य दृष्टिगत होता है । कारंजा भंडार की प्रतियाँ मिलने पर पाठान्तर आदि लेकर निष्कर्ष की पुष्टि की जा सकेगी। पुनः त्रैराशिक व्यवहार तक के अंश (जो कि गणितसारसंग्रह से पूर्णतः उद्धृत हैं) में सकल ८, भिन्न ८, भिन्न जाति ६, प्रकीर्णक १०, एवं त्रैराशिक ४ इस प्रकार के कुल ३६ विषय ही चर्चित हैं अतः इन तीनों में एक ही अर्थ के बोधक शीर्षकों को सार्थकता भी सिद्ध होती है।
(२) इसकी रचना माधव चन्द्र विद्य नामक दिगम्बर जैनाचार्य ने महावीराचार्य के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ गणितसारसंग्रह को शोध कर की थी। यहाँ पर एक बात ध्यान देने योग्य है कि महावीराचार्य को कृति के रूप में छत्तीस पूर्वाप्रति उत्तर प्रतिसह का भी उल्लेख विद्वानों ने किया है ।
(३) डा० मुकुटबिहारी लाल अग्रवाल का कथन 'इसमें बीजगणित की ही चर्चा है' समीचीन नहीं लगता।
१. वहीं, २. व्यक्तिगत पत्राचार-श्री श्रीकान्त चंवरे-अकोला । ३. देखें सं०-६।
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