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डा० रविशंकर मिश्र
संमोहनं नाम सखे ममास्त्रं प्रयोगसंहारविभक्तमन्त्रम् । गान्धर्वमादत्स्व यतः प्रयोक्तुर्न चाहिसा विजयश्च हस्ते ॥ अलं ह्रिया मां प्रति यन्मुहूर्तं दयापरोऽभूः प्रहरन्नपि त्वम् । तस्मादुपच्छन्दयति प्रयोज्यं मयि त्वया न प्रतिषेधरोक्ष्यम् ॥'
[ तुमने अपने क्षात्र धर्म का पालन करते हुए भी अपने दया-धर्म को नहीं छोड़ा और मेरे प्राण नहीं लिये, अतः मैं आज से तुम्हारा मित्र हूँ और अपनी इस मित्रता को चिरस्मरणीय बनाने हेतु मैं आपको यह एक ऐसा सन्मोहन अस्त्र प्रदान कर रहा हूँ, जिसके द्वारा इसके प्रयोक्ता को अपने शत्रु की हिंसा नहीं करनी पड़ती और उसे शत्रु पर विजय भी प्राप्त हो जाती है । ]
इस प्रसङ्ग में भी कवि की अहिंसाप्रधान नीति का ही आभास होता है । क्योंकि शत्रु बिना हिंसा किये ही उस पर विजय प्राप्त कर लेना सामान्यतया तो असम्भव ही होता है, अत: ऐसी स्थिति में भी कवि द्वारा ऐसे प्रसङ्ग का प्रस्तुतीकरण सहजतया कवि के अहिंसा - सिद्धान्त का ही परिपोषक सिद्ध होता है । आगे इसी प्रसङ्ग में हम देखते हैं कि अज ने रणभूमि में अपने शत्रुओं पर उसी सम्मोहन अस्त्र का प्रयोग कर, बिना शत्रुओं की हिंसा किये ही उन पर विजय भी प्राप्त की ।
उपर्युक्त प्रसङ्ग महाकवि की प्राणिमात्र के प्रति दयालुता व उत्कृष्ट अहिंसात्मक भावना के द्योतक/प्रस्तोता हैं । उन्होंने पदे पदे अहिंसा की महिमा का हाथ उठाकर बखान किया है, तभी तो इसी काव्य में आगे उन्होंने राजा दशरथ की उस आखेट - क्रीड़ा की निन्दा की हैं, जो श्रवणकुमार की हिंसा का कारण बनी थी
नृपतेः प्रतिषिद्धमेव तत्कृतवान्पङ्क्तिरथो विलङ्घय यत् । अपथे पदमर्पयन्ति हि श्रुतवन्तोऽपि रजोनिमीलिताः ॥ २
[ जङ्गली हाथी को मारना राजा के लिए निषिद्ध था, किन्तु राजा ने उसका उल्लङ्घन किया । सच है, विद्वान् पुरुष भी राजसी गुणों से अभिभूत होकर अनुचित मार्ग पर पदार्पण कर बैठते हैं । ]
इस प्रसङ्गको आधार बनाकर कहा जा सकता है कि जब राजा के लिए गज-हिंसा सर्वथा वर्जित थी, तब उसने गज-शब्द के भ्रम में ही सही पर उसकी हिंसा के निमित्त बाण क्यों चलाया ? क्या काव्य की अपनी पूर्णता की ओर क्रमशः पहुँचते-पहुँचते- - अहिंसात्मक भावनाज्वार में शिथिलता आ गयी थी ? पर नहीं जहाँ तक मेरा विचार है कि को यही दर्शाना अभिप्रेत था कि अनजाने में भी कभी किसी की हिंसा के भी नहीं लाना चाहिए और सम्भवतः इसी विचार के फलस्वरूप कवि ने श्रवणकुमार की हिंसा का प्रसङ्ग उपस्थित किया ।
इस प्रसङ्ग द्वारा कवि प्रति मन में विचार तक
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१.
२. वही, ५।६५ ॥
3.
वही, ५।५७-५८ ।
रघुवंश : महाकवि कालिदास, ९१७४ |
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