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कालिदास की रचनाओं में अहिंसा की अवधारणा
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तो कुमारसम्भव में पार्वती की जिस कठिन तपस्या' का तथा रघुवंश में राजा अज के आमरण उपवास के साथ उनके शरीर त्याग का जो हृदयहारी वर्णन कवि ने किया है, वह सहजतया हमें जैन धर्म में प्रतिपादित सम्यक्-तप और सल्लेखना - समाधिमरण की स्मृति कराता मिलता है ।
जैन धर्म एवं उसकी अहिंसा की अवधारणा के प्रति महाकवि के इस अगाध विश्वास और आदर भाव का कारण भी स्पष्ट ही है । महाकवि के समय में जैन धर्म का पर्याप्त प्रभाव था । वह हिंसाप्रधान यज्ञादिकों का विरोधी था और अहिंसा, सत्य, तप, अस्तेय और अपरिग्रह पर विशेष बल देते हुए उस युग की बुराइयों को सुधारने का प्रयत्न कर रहा था । इसी के फलस्वरूप यह धर्म समाज में समादरणीय स्थान प्राप्त कर सका । सम्भवतः यही कारण रहा होगा कि जैन धर्म के अहिंसा, अनेकांत, आत्मोत्सर्ग के आदर्शों के अवलोकनोपरान्त महाकवि भी इस धर्म के प्रति आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सके ।
१. कुमारसम्भव : महाकवि कालिदास, ५ / २ । रघुवंश: महाकवि कालिदास, ८ / ९४-९५ ।
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सम्पादक, भाषा विभाग, पुराना सचिवालय, भोपाल (मध्यप्रदेश )
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