Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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श्रमणं ज्ञान मीमांसा
१०१ बुद्ध ने एक अन्य प्रकार से भी प्रश्नों का समाधान किया था जिसे 'चतुष्कोटि' कहा गया है
१. अत्थि २. नत्थि ३. अत्थि च, नत्थि च, और ४. नेव अस्थि, न च नत्थि इस चतुष्कोटि का उपयोग बुद्ध ने अनेक स्थानों पर किया है । उदाहरणतः१. छन्नं फस्सायतनं असेसविरागनिरोधा अस्थि अकिञ्चिति । २. छन्नं "नत्थि अनं किञ्चिति । ३. छन्नं "अत्थि च नत्थि च अञ्च किञ्चिति । ४. छन्नं "नेव अत्थि न न अत्थि च अनं किञ्चि ति ।
बुद्ध ने तत्त्व का वर्णन कहीं-कही दो सत्यों के माध्यम से भी किया है-संमुतिसच्च और परमत्थसच्च । आत्मा के सिद्धान्त को बुद्ध ने अव्याकृता से लेकर संमुतिसच्च तक पहुंचाया। 'न च सो न च अञो' जैसे कथनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध के विभज्जवाद ने पारमार्थिक और व्यावहारिक दृष्टि से पदार्थ के विश्लेषण को प्रारम्भ कर दिया था
यथा हि अंगसंभारा होती सद्दो रथो इति ।
एवं खन्धेसु सन्तेसु होति संतो ति समुति ।' इस विवेचन से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बुद्ध मूलतः विभज्जवादी थे और उस विभज्जवाद के उन्होंने क्रमशः निम्नलिखित विभाग किये। दूसरे शब्दों में इसे हम विभज्जवाद की विकासात्मक अवस्थायें कह सकते हैं
१. अव्याकृततावाद २. एकसिक-अनेकसिकवाद ३. व्याकरणीय प्रकार ४. चतुष्कोटिविधा, और ५. सच्च प्रकार
जैसा हम शुभ माणवक के प्रसंग में देख चुके है, महात्मा बुद्ध ने परमत्थसच्च को अधिक महत्व दिया। परमत्थदीपिनी; परमत्थजोतिका जैसे शब्द भी इसी अर्थ को व्यक्त करते हैं। बौद्ध साहित्य में नय, सुनय, दुर्नय शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। ज्ञान के जिन आठ साधनों को भगवान् बुद्ध ने बताया है उसमें एक नय हेतु भी है। एक निर्णय विशेष करने के लिए नय को आवश्यकता होती है। सुत्तनिपात में कहा है कि संमुतिसच्च श्रमण-ब्राह्मणों का सर्वसाधारण सिद्धान्त था
१. मिलिन्दपञ्च, २७-३० २. अनुस्सवेन परम्पराय, इतिकिरियाय, पिटकसंपदाय, भवपरूपताय, समणो न गुरु, तक्किहेतु, नयहेतु,
आकारपरिवितक्केन""दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया-अंगुत्तरनिकाय (२.१.१९१:९) (रोमन) ३. न येन नेति, सं. नि. २, पृ. ५८; अनयेन नयति दुम्मेधो, जातक ४, पृ. २४१
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