Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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नाट्यदर्पण पर अभिनवभारती का प्रभाव
काजी अञ्जुम सैफ़ी
आचार्य अभिनवगुप्त के अतुलनीय ज्ञान एवं अद्वितीय मेधा की प्रतीक अभिनवभारती स्वयं टोका होते हुए भी प्रकाण्ड पाण्डित्यपूर्ण विवेचन के कारण स्वतन्त्र नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। निःसन्देह रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने नाट्यदर्पण की रचना से पूर्व उसका सम्यक् आलोडन किया है। इसी कारण उसको विवेचन-पद्धति, तथ्यों, मन्तव्यों और विचारों का अत्यधिक प्रभाव नाट्यदर्पण पर परिलक्षित होता है।
यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि सम्पूर्ण नाट्यदर्पण में कहीं भी अभिनवभारती का नाम प्राप्त नहीं होता है। 'नाटक' शब्द की व्युत्पत्ति के प्रसङ्ग में मात्र एक स्थल पर आचार्य अभिनव गुप्त को नामतः आलोचना प्राप्त होती है | इससे इस तथ्य की भी प्रतीति होती है कि रामचन्द्रगुणचन्द्र ने स्वग्रन्थलेखन में स्वतन्त्र ग्रन्थ-लेखन की परम्परा का निर्वाह किया है, किसी का अन्धानुकरण नहीं किया। इसलिये अनेक स्थलों पर उन्होंने तथ्यों को नवीन रूप में परिभाषित और प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। ऐसे अवसरों पर सामान्यरूपेण प्राचीन परम्परा और स्वयं से भिन्न मत रखने वाले आचार्यों के विचारों का भी उन्होंने निर्देश किया है। इसके लिये उन्होंने 'केचिद्' आदि शब्दों का प्रयोग किया है । इसी शैली में कतिपय ऐसे मन्तव्यों का भी रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने सङ्केत किया है, जो अभिनवभारतो में भी प्रस्तुत किये गये हैं। नाट्य-दर्पण में ऐसे उद्धरण निम्नलिखित हैंनाट्यदर्पण
अभिनवभारती १. अन्ये तु कार्यार्थमसह्यस्याप्यर्थस्य सहन .... ."तेन दुष्टोऽप्यर्थोऽपमानेन बहुमतीकृतः । तदछादनमामनन्ति । विवृत्ति पृ० ८४ पमानकलङ्कापवारणाच्छादनमिति । ना० शा०
भाग-३ पृ० ५५-५६ । २. अपरे तु क्रोधादेः प्राप्तस्य शमनं द्युतिमाम- सामर्थ्यात्प्रशमनोयस्य क्रोधादेरर्थस्य प्राप्तस्यापि नन्ति । पूर्वोक्त पृ० १०९
यत्प्रशमनं सा द्युतिः । पूर्वोक्त पृ० ५८। ३. केचिदस्य द्वादशनेतृकत्वमाम्नासिषुः । पूर्वोक्त यथा समवकार इति द्वादशेत्यर्थः। पूर्वोक्त भाग-२ पृ० १०९
पृ० ४४४ । ४. केचित् पुनरल्पाक्षरं गायत्र्यादिकमर्धसम-विष- उष्णिक् सप्तभिः गायत्री षड्भिः बन्धकुटिलानि मादिकं चात्र पद्यं मन्यन्ते । पूर्वोक्त पृ० १११ विषमाधसमानि तान्यत्र समवकारे सम्यग्योज्या
नीति । पूर्वोक्त पृ० ४४१ ।
१. विवृति ना द० प. ० २५ ।
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