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श्रमण ज्ञान मीमांसा
पाचक रूप से ग्रहण करता है, वही सविकल्पक है, अन्य नहीं। यह बात प्रत्यक्ष ज्ञान में संभव नहीं है । अतः निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है।'
जैन दार्शनिक इसे स्वीकार नहीं करते । उनके मत में निश्चयात्मक सविकल्पक ज्ञान ही प्रमाण है । ज्ञानद्वैतवादी, संवेदनाद्वैतवादी बौद्धों का खण्डन करते हुए उन्होंने कहा कि निर्विकल्पक ज्ञान निराकार होने से लोक-व्यवहार चलाने में असमर्थ होते हैं और उससे पदार्थ का निश्चय भी नहीं होता। जो स्वयं निश्चयात्मक नहीं है वह निश्चयात्मक ज्ञान को उत्पन्न कैसे कर सकता है । अतः निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं ।
मिथ्याज्ञान को प्रमाण कोटि के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में से विपर्यय ज्ञान के विषय में मतभेद अधिक है। शुक्तिका होते हुए भी उसमें रजतज्ञान कैसे हो जाता है ? यह प्रश्न दार्शनिकों के समक्ष रहा है । बाह्यार्थवादी और अद्वैतवादी दार्शनिकों ने इस प्रश्न का समाधान अपने-अपने ढंग से किया है।
सौत्रान्तिक और माध्यमिक दार्शनिकों ने विपर्ययज्ञान को 'असत्ख्यातिवाद' माना है। उनके अनुसार सोप में "यह चाँदी है" यह प्रतिभास न ज्ञान का धर्म है और न अर्थ का । सुषुप्ति अवस्था में होने वाले प्रतिभास के समान यह प्रतिभास असत् का ही प्रतिभास है। वस्तु का स्वभाव ही निःस्वभाव है।
परन्तु जैनाचार्य इसे नहीं मानते। उनका कहना है कि आकाशकुसुम की तरह असत् का प्रतिभास होना ही संभव नहीं है। ज्ञान और अर्थ में वैचित्र्य माने बिना भ्रान्ति का जन्म हो नहीं सकता अतः असत्ख्यातिवाद ठीक नहीं।
___ योगाचारवादियों ने इस विपर्ययज्ञान को आत्मख्यातिवाद कहा है। उनके अनुसार भ्रम दो प्रकार के हैं-मुख्य भ्रम और प्रातिभासिक भ्रम । सभी ज्ञान भ्रान्त होते हैं पर हम उन्हें अभ्रान्त मानकर चलते हैं। सीप में 'यह चाँदी है' यह ज्ञान का ही आकार है जो अनादिकालीन अविद्या वासना के बल से बाहर में प्रतिभासित होता है । इसलिए इसे आत्मख्याति कहा जाता है। सविकल्पक ज्ञान वस्तुतः इन्द्रियजन्य नहीं बल्कि मनोजन्य है।
जैनाचार्य इसे स्वीकार नहीं करते । यदि अनादि अविद्या वासना के कारण स्वात्मनिष्ठ ज्ञानाकार का प्रतिभास बहिःस्थित रूप से हुआ मानते हैं तब तो यह विपरीत ख्याति ही हुई, क्योंकि ज्ञान से अभिन्न चाँदी वगैरह के आकार का विपरीत रूप से अर्थात् बहिःस्थित रूप से अध्यवसाय होता है ।
जैन दर्शन नैयायिकों के समान विपदीख्यातिवादी है । उसके अनुसार इन्द्रियादि दोष के कारण शुक्तिका में रजत का प्रत्यय होता है । बाह्यार्थ रजत नहीं, शुक्तिका है । अतएव यह प्रत्यय विपर्यय है।
इस प्रकार जैन दार्शनिक ज्ञान को स्वसंवेदी मानते हैं । उनके अनुसार पदार्थज्ञान के लिए १. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ४६; न्यायविनिश्चय, पृ० ११; तत्त्वसंग्रह, पृ० ३९०; जैन न्याय, पृ० ६४-६५ । २. राजवार्तिक, १.१२ । ३. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ४९; न्यायकुमुदचंद्र, पृ० ६० । ४. राजवार्तिक, १.१२ । १२
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