Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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श्रमण ज्ञान मीमांसा
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पूर्ति अनादिकालीन अविद्या वासना से चला लिया जाता है। यही वासना संसार के वैचित्र्य का कारण है ।
जैन दर्शन में मीमांसकों के समान द्रव्य में एक अतीन्द्रिय शक्ति का समर्थन किया गया है । इस शक्ति की तुलना हम अर्थ पर्याय से कर सकते हैं । अर्थपर्याय पदार्थ की वह सूक्ष्म पर्याय है जो हमारी इन्द्रियों का विषय नहीं हो पाता । व्यञ्जन पर्याय पदार्थ की स्थूल पर्याय है जिसे इन्द्रियां अपना विषय बना लेती हैं । अर्थपर्याय पदार्थ की अनन्त शक्ति का प्रतीक है। इसी के बल पर वह अनेक कार्य करने में समर्थ होता है ।" व्यंजनपर्याय ही अर्थ पर्याय नहीं हो सकते क्योंकि उनका स्वरूप तो प्रत्यक्ष है । परन्तु अर्थपर्याय का बोध तो किसी कार्य को देखकर ही अनुमान से होता है ।
परमाणुवाद
परमाणुवाद पर सृष्टि-प्रक्रिया आधारित है । जैनधर्म का परमाणुवाद और अनिरुद्धाचार्य का रूपकलाप समानार्थक प्रतीत होता है । जैनदर्शन के अनुसार परमाणु अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र से नही छेदाभेदा जा सकता है और न जल-अग्नि आदि द्वारा जलाया जा सकता है। वह एक प्रदेशी है, शून्य नहीं । परमाणु दो प्रकार का है - कारणरूप और कार्यरूप । शरीर, इन्द्रिय, महाभूत आदि स्कन्ध रूप कार्यों से परमाणु का अस्तित्व सिद्ध होता है । उसके अभाव में स्कन्ध रूप हो ही नहीं सकता । वस्तुतः परमाणु स्कन्ध ही पुद्गल है । स्कन्धों की उत्पत्ति, भेद, संघात तथा भेद- संघात से होती है ।
बौद्ध दर्शन में परमाणुवाद की कल्पना अभिधम्मत्थसंग हो में अधिक स्पष्ट हो सकी । वहाँ अवयव धर्मों के समूह को रूपकलाप कहा गया है । रूपों की उत्पत्ति अन्योन्य सापेक्ष होती है । यही स्कन्ध है | एक कलाप में कम से कम आठ या इससे भी अधिक रूप होते हैं तथापि एक रूप कलाप में उत्पाद, स्थिति और भंग एक ही होता है ।
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सर्वास्तिवादियों का संघात, अनिरुद्ध का कलाप तथा जैनाचार्यों का स्कन्ध-संघात समानार्थक है । सर्वास्तिवादियों ने परमाणु के १४ प्रकार बताये हैं- पाँच विज्ञानेन्द्रिय, पाँच विषय तथा चार महाभूत । वसुबंधु की परमाणु को व्याख्या जैनधर्म के परमाणु से अधिक समीप है । उनका उत्पाद चार महाभूत और रूप रस गंध और स्पृष्टव्य इन आठ द्रव्यों के साथ होता है । वह अविभागी तथा अस्पर्शी है । आर्यदेव ने भी परमाणु का लक्षण हेतुत्व, परिमाण्डल्य और अप्रदेशत्व माना है । उसे अनित्य भी कहा है ।" यह इस सिद्धान्त के विकास का परिणाम हैं। आर्यदेव के पूर्व नागार्जुन ने उसकी सत्ता को अस्वीकृत किया था। इतना ही नहीं, उसके उपादानोपादेयभाव का भी निराकरण
१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ५१० ।
२. स्याद्वादरत्नाकर, पृ० ३०५ -६, अष्टसहस्री, १८३ ।
३. तिलोयपण्णत्ती, १.९६ ।
४. राजवार्तिक, ५.२५.१४.१५ ।
५. चतुःशतकम् २१३-२१९ ।
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